पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/१३०

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हिन्दू धर्म
 

आकांक्षा करता है, पर शीघ्र ही उस बात को भूल जाता है और पुनः फल खाना आरम्भ कर देता है। कुछ समय में वह और भी दूसरा अत्यन्त कडुआ फल खाता है, जिसके कारण उसे दुःख का अनुभव होता है, वह पुनः ऊपर देखता है और उस ऊपर वाले पक्षी के कुछ समीप पहुँचने का प्रयत्न करता है। पुनश्च एक बार उसे विस्मरण हो जाता है और कुछ समय के बाद वह ऊपर दृष्टि डालता है और इसी प्रकार वह बार-बार आगे बढ़ता है, यहाँ तक कि वह उस सुंदर पक्षी के अत्यन्त समीप पहुँच जाता है; उस समय वह देखता है कि उस पक्षी के शरीर और पंख से सुंदर प्रकाश की आभा इसके अपने ही शरीर के आसपास खेल रही है। अब इस पक्षी को अपने में परिवर्तन का अनुभव होता है और वह मानो पिघलने लगता है; अब यह और भी निकट जाता है और उसके आसपास की सभी वस्तुएँ पिघल जाती हैं। अन्त में वह इस अद्भुत परिवर्तन को समझ पाता है कि वह मानो ऊपरवाले की भावरूप छाया, प्रतिबिम्ब ही था। वह स्वयं ही स्वरूपतः सदा ऊपर का पक्षी था। मधुर और कटु फलों का यह भक्षण, यह नीचेवाला छोटा पक्षा, बारी-बारी से रोना और आनंदित होना, यह सब केवल मिथ्या आभास एक स्वप्न मात्र था। सचा पक्षी शान्त और मौन तेजस्वी और ऐश्वर्य-सम्पन्न, दुःख और शोक के परे सदैव ऊपर बैठा था। ऊपरवाला पक्षी, इस विश्व का प्रभु ईश्वर है और नीचेवाला पक्षी,

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