पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/४०

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हिन्दू धर्म
 

का उदय भारत में अति प्राचीन काल में ही हुआ था । सम्पूर्ण संहिताओं में, उनके आदिम और अत्यन्त पुराने भाग में यह एकेश्वरवाद सम्बन्धी विचार आया है, पर हम देखेंगे कि आर्यों के लिये इतना ही पर्याप्त नहीं जचा और वे उसे दूर हटा कर-जैसा कि हम हिन्दू सोचते हैं-आगे बढ़े। यह तो ठीक ही है कि जब कोई हिन्दू पाश्चिमात्य पण्डितों द्वारा लिखित वेद सम्बन्धी पुस्तकों और टीका-टिप्पणियों में यह पढ़ता है कि हमारे ग्रंथकर्ताओं के लेखों में केवल यही उपयुक्त शिक्षा भरी है, तब तो उसे हँसी आये बिना नहीं रहती। जिन्होंने बचपन से ही मानो अपनी माँ के दूध के साथ यह विचार ग्रहण किया है कि ईश्वर एक 'व्याक्ति' है, ईश्वर के विषय में यही जिनकी अत्युच्च धारणा है, वे लोग स्वभावतः ही भारत के प्राचीन तत्ववेत्ताओं के समान विचार करने का साहस नहीं कर सकते; विशेषकर उस समय जब वे देखते हैं कि संहिता के बाद ही एकेश्वरवाद की कल्पना को जिससे संहिता भरी हुई है, आर्यों ने पाया, तत्त्ववेत्ताओं और दार्शनिकों के लिये अनुपयुक्त पाया और इसलिए वे आर्य अधिक ताविक एवं अतीत सत्य की खोज में विशेष परिश्रम करने लगे। उनकी दृष्टि में एकेश्वरवाद अत्यन्त मानुषिक दिखा, यद्यपि वे उसके वर्णन में " सम्पूर्ण विश्व उसी में भ्रमण करता है," "तू ही सभी के अन्तःकरणों का नियामक है" इत्यादि वाक्यों का प्रयोग करते हैं। हिन्दू लोग साहसी थे और उनको इस बात का श्रेय देना चाहिये कि वे अपने सभी विचारों को बड़े साहस

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