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वेदप्रणति हिन्दू धर्म
 

युग में लिखे गये थे, उसकी अपेक्षा आज अधिक नवीन हैं। हमें अब तक यह सीखना शेष है कि सभी धर्म का-चाहे उसका कोई भी नाम हो, हिन्दू, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई आदि-ईश्वर एक ही है और इनमें से जो किसी की निन्दा करता है, वह अपने ही ईश्वरः की निन्दा करता है।

इस तरह समस्या हल हो गई थी। परन्तु जैसा मैंने कहा;हिन्दुओं के मन को इस प्राचीन एकेश्वरवाद के विचार से सन्तोष नहीं हुआ; उससे वे अधिक दूरी तक नहीं जा सके, उससे दृश्य-जगत् सम्बन्धी शंका का समाधान नहीं हुआ; जगत् का शासनकर्ता ईश्वर मान लेने से जगत् का स्वरूप ठीक ठीक समझ में नहीं आता कभी नहीं आता । विश्व का विधाता मान लेने से विश्व समझ में नहीं आ सकता और वह विधाता विश्व के बाहर का हो तो और भी कम समझ में आता है। ऐसा विधाता नैतिक पथ प्रदर्शक हो सकता है। सर्वशक्तिमान भले ही हो सकता है, पर इससे कहीं विश्व सम्बन्धी प्रश्न हल थोडे ही हो जाता है। विश्व के सम्बन्ध में अब सब से पहला कठिन प्रश्न यही उठता है-यह विश्व कहाँ से आया? कैसे आया? और किस में स्थित है ?" इस प्रश्न को घोषित करने वाले कई सूक्त मिलते हैं । इस प्रश्न को सुसम्बद्ध रूप देने के लिये कठिन प्रयास हो रहा है-और इसका वर्णन निनोक्त सूक्त में जिस प्रकार किया गया है उससे अधिक काव्यमय,और अद्भुत वर्णन अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा-

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