पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/५२

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हिन्दू धर्म
 

तत्पश्चात् उसी 'इच्छा' का-जिसके विषय में हमने उसके सृष्टि का अव्यक्त बीज होने के बारे में पढ़ा है-यहाँ तक विस्तार किया जाता है कि वह सर्वव्यापी परमेश्वर का पद प्राप्त कर लेती है; पर इन विचारों में से कोई भी विचार समाधानकारक नहीं प्रतीत हुआ।

यहाँ पर आदि कारण की कल्पना अत्यन्त उदात्त स्वरूप धारण कर लेती है और अन्त में वह 'आदि पुरुष' की कल्पना में परिणत हो जाती है । "सृजन के पूर्व उसी एक का अस्तित्व था,वही सब पदार्थों का एक मात्र अधीश्वर है, वही इस विश्व का आधार है, वही जीव-सृष्टि का जनक है, समस्त शक्ति का मूल है,समस्त देव-देवता उसी की पूजा करते हैं; जीवन जिसकी छाया है,मृत्यु जिसकी छाया है, उसको छोड और किसकी पूजा करें।हिमगिरि के तुषार मण्डित उत्तुंग शिखर जिसकी महिमा का उद्गान करते हैं, समुद्र अपने अगाध जलसम्भार के द्वारा जिसकी महिमा की घोषणा करते हैं,-"आदि आदि वर्णन पाया जाता है, पर जैसा मैं तुम्हें पहले बता चुका हूँ, इस विचार से उनका समाधान नहीं हो सका।

अन्ततोगरवा हम एक विचित्र अवस्था में पहुँच जाते हैं।आर्य ऋषियों का मन अभी तक बाह्य प्रकृति में ही इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ रहा था। सूर्य, चन्द्रमा, तारागण आदि जो जो वस्तुएँ उन्हें दिखाई दी, उन सब में उन्होंने इसे ढूंढा और इस प्रकार वे जो कुछ पता लगा सके-लगाया। सम्पूर्ण प्रकृति से उन्हें केवल ऐसे

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