पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/५८

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हिन्दू धर्म
 

भीतर ही है; और वहाँ से वे उसे अपने हृदय में ले गये। यहाँ मनुष्य के हृदय में वह आत्माओं की आत्मा, हमारी सत्ता के रूप में विराजमान है।

वेदान्त दर्शनशास्त्र के यथार्थ स्वरूप का ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त करने के लिए कई महत्त्वपूर्ण विचारों को समझना आवश्यक है। प्रथम तो यह कि वह उस अर्थ में दर्शनशास्त्र नहीं है, जिस अर्थ में हम “कैंट” और “हेगल” के दर्शनशास्त्र की चर्चा करते हैं। वह न तो एक ग्रंथ है और न किसी एक व्यक्ति का बनाया ही। विभिन्न कालों में लिखित ग्रंथों की एक श्रेणी का नाम वेदान्त है। कभी कभी तो इनमें से एक में ही पचासों भिन्न भिन्न विषय दिखाई देंगे। वे क्रमबद्ध रूप में संकलित भी नहीं हैं; मानो विचारों की टिप्पणियाँ बना ली गई हों। कहीं कहीं तो बहुत से अन्य विषयों के मध्य में हम कोई अद्भुत विचार पा जाते हैं। पर एक बात उल्लेखनीय है कि उपनिषदों के ये विचार सदा प्रगतिशील पाये जाते हैं। उस पुरानी अनगढ़ भाषा में, प्रत्येक ऋषि के मन की विचार-क्रियाएँ जैसी-जैसी होती गई, उसी क्रम से उसी समय मानो चित्रित कर दी गई हों। पहले तो ये विचार बहुत ही अनगढ़ रहते हैं। और तत्पश्चात् क्रमशः सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होते हुये अन्त में वेदान्त के लक्ष्य को पहुँच जाते हैं और इसी परिणति को दार्शनिक स्वरूप प्राप्त हो जाता है। यह ठीक उसी तरह होता है, जैसा कि हमने देखा है कि प्रथम द्युतिमान देवताओं का पता लगाया जा रहा

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