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हिन्दू धर्म और उसका सामान्य आधार
 

कि एक और ऐसी मुख्य बात है जो पाश्चात्य विचारों को एक ही चोट में पूर्वीय विचारों से पृथक् कर देती है। वह यह है कि हम भारत के निवासी जितने भी प्रकार के धर्मावलम्बी हैं-शाक्त, शैव, सौर या वैष्णव; यहाँ तक कि बौद्ध और जैन भी-सब-के-सब यही विश्वास करते हैं कि पास्मा स्वभावतः शुद्ध, पूर्ण, अनन्तशक्तिसम्पन्न और भानन्दमय है। केवल द्वैतवादियों के मत से आत्मा का वह स्वाभाविक आनन्द स्वभाष पिछले बुरे कमी के कारण संकुचित हो गया है।ईश्वर के अनुग्रह से वह फिर खिल जाएगा और आत्मा पुनः अपने पूर्ण स्वभाव को प्राप्त होजायगी। पर अद्वैतवादी कहता है कि आत्मा के संकुचित होने की धारणा भी अनेक अंशों में भ्रान्ति-मलक है-माया के आवरण के कारण ही हम समझते हैं कि आस्मा ने अपनी समस्त शक्ति खोई है, परन्तु असल में आत्मा की समस्त शक्ति तब भी पूर्ण रूप से प्रकाशमान रहती है। द्वैत और अद्वैतवाद में यह अन्तर रहने पर भी मूलतत्व में-अर्थात् आत्मा के स्वाभाविक पूर्णरव के विषय में-सब का विश्वास एक है, और यहीं पर पाश्चात्य और प्राच्य के बीच की मजबूत दीवार खडी होती है। प्राच्य जाति उन वस्तुओं को, जो अच्छी और महान् हैं,अपने अन्दर ढूंढती है। पूजा उपासना के समय हम लोग आँखें बन्दकर ईश्वर को अपने अन्दर ढूंढ़ते हैं, और पाश्चत्य जाति अपने बाहर ही ईश्वर को ढूंढ़ती फिरती है। पाश्चात्यों के धर्मग्रंथ श्वास की तरह बाहर से भीतर आये हुए( Inspired ) हैं। पर हमारे धर्मग्रंथ भीतर से बाहर निकले हुए

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