पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/७७

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हिन्दू धर्म और उसका सामान्य आधार
 

हमारी यह अवनति, यह दुरवस्था आरम्भ हुई है। आत्म-विश्वास हीनता का मतलब ही है ईश्वर में अविश्वास । क्या तुम्हें विश्वास है कि वही अनन्तमङ्गलमय विधाता तुम्हारे भीतर बैठकर काम कर रहा है?यदि तुम ऐसा विश्वास करो कि वही सर्वव्यापी अन्तर्यामी प्रत्येक अणु-परमाणु में-तु हारे शरीर, मन और आत्मा में-ओत प्रोत है,तो फिर क्या तुम कभी उत्साह से वञ्चित रह सकते हो? मान लो, मैं पानी का एक छोटा-सा बुलबुला हूँ, और तुम एक पर्वत-प्राय तरंग हो तो इससे क्या ? वह अनन्त समुद्र जैसा तुम्हारे लिये, वैसा ही मेरे लिए भी आश्रय है। उस प्राण, शक्ति और आध्यात्मिकता के प्रशान्त समुद्र में जैसा तुम्हाग, वैसा ही मेरा भी अधिकार है। मेरे जन्म से ही-मेरे अन्दर जीवन होने से हो-यह प्रमाणित हो रहा है कि भले ही तुम पर्वतप्राय ऊँचे हो, पर मैं भी उसी अनन्त जीवन, अनन्त शिव और अनन्त शक्ति के साथ नित्य संयुक्त हूँ। अतएव, भाइयो ! आप अपनी सन्तानों को बाल्यकाल से ही इस महान्, जीवनप्रद, उच्च और महत्व-विधायक तत्व की शिक्षा देना शुरू कर दीजिये। उन्हें जान-बूझकर अद्वैतवाद की ही शिक्षा देने की कोई अवश्यकता नहीं। आप चाहे अद्वैतवाद की शिक्षा दें या जिस किसी 'वाद' की-मैंने यह पहले ही बता दिया है कि आत्मा की पूर्णता के इस अपूर्व सिद्धान्त को सभी सम्प्रदाय वाले समान रूप से मानते हैं। हमारे पूज्य दार्शनिक कपिल महर्षि ने कहा है कि पवित्रता यदि आस्मा का स्वरूप न हो, तो वह कभी पवित्रता को

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