पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/७८

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हिन्दू धर्म
 

प्राप्त भी नहीं हो सकती। कारण, जो स्वभावतः पूर्ण नहीं है, वह

यदि किसी प्रकार पूर्णता पा भी ले, तो वह पूर्णता उसमें स्थिर भाव से नहीं रह सकती-उससे हट ही जायगी। अगर अपवित्रता ही मनुष्य का स्वभाव हो, तो भले ही वह कुछ समय के लिये पवित्रता प्राप्त कर ले; पर वह सदा के लिये अपवित्र ही बना रहेगा। कभी-न- कभी ऐसा समय आएगा, जब वह पवित्रता धुल जायगी―दूर हो जायगी, और फिर वही पुरानी स्वाभाविक अपवित्रता अपना सिक्का जमा लेगी। इसीलिये हमारे सभी दार्शनिकों ने कहा है कि पवित्रता ही हमारा स्वभाव है, अपवित्रता नहीं; पूर्णत्व ही हमारा स्वभाव है, अपूर्णता नहीं-इसे आप लोग सदा स्मरण रक्खें। शरीर त्याग करते समय एक महर्षि ने अपने मन से कहा है, अपने किये हुए उत्कृष्ट कार्यों और ऊँचे विचारों का स्मरण करते रहना। * यह सुन्दर दृष्टान्त सदा याद रखने योग्य है। देखिये, उन्होंने अपने मन से अपनी कमजोरियों की याद करने के लिये नहीं कहा है। यह जरूर है कि मनुष्य में कमजोरियाँ भी बहुत है; पर फिर भी तुम अपने वास्तविक स्वरूप को सदा याद रक्खो-बस, इन दोषों और दुर्बलताओं के दूर करने का यही अमोघ उपाय है।

भद्रमहोदयो, मैं समझता हूँ कि ऊपर जो मैंने कई विषय बताये हैं, उन्हें भारतवर्ष के सभी भिन्न भिन्न सम्प्रदाय वाले स्वीकार करते हैं, और सम्भवतः भविष्य में इस सर्वस्वीकृत आधार पर सभी


* ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर, क्रतो स्मर कृतं स्मर।―ईशोपनिषद्, १७

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