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पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/९६

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हिन्दू धर्म
 

हुये सब से महत्व का एवं जटिल प्रश्न तो यही है, कि उस ईश्वर ने इसे किस उपादान से बनाया? सभी दर्शन-शास्त्र मानो इसी प्रश्न पर निर्भर हैं?

इस समस्या का एक उत्तर यह है कि प्रकृति, ईश्वर और जीव अनादि अनन्त सत्ताएँ हैं, मानो तीन नित्य समानान्तर रेखाएँ हों। इनमें से प्रकृति और जीव परतंत्र एवं ईश्वर स्वतंत्र सत्ता है। प्रत्येक आत्मा जड़ परमाणु के समान ईश्वर की इच्छा पर पूर्णतया अवलम्बित है। अन्य विषयों का विचार करने के पूर्व हम आत्मासम्बन्धी विचार को ही लेंगे और इससे यह देखेंगे कि सभी वैदान्तिक दर्शनशास्त्र पाश्चात्य दर्शन से अत्यन्त प्रयक हैं। उन सबमें एक ही सामान्य मनस्तरव है। भारतवर्ष के उन तत्ववेत्ताओं का दार्शनिक सिद्धान्त चाहे जो रहा हो, पर उन सभों का मनस्तत्व वही रहा है जो प्राचीन सांख्य दर्शन का है। उसके अनुसार, सर्वप्रथम बाह्य इन्द्रियों में से आने वाले स्पंदन के भीतर पहुँचने से ही ज्ञान उत्पन्न होता है; बाह्य इन्द्रियों से वे अन्तरिन्द्रियों में पहुँचते हैं, अन्तरिन्द्रियों से मन में, मन से बुद्धि में और वहाँ से उस एक वस्तु में, जिसे आत्मा कहते हैं। आधुनिक शरीर-विज्ञान में आने पर हम देखते हैं कि उसे सभी भिन्न भिन्न संवेदनाओं के विभिन्न केन्द्रों का पता लगा है। प्रथम तो उसे निम्न श्रेणी के केन्द्रों का पता लगता है, तत्पश्चात् उससे उच्च श्रेणी के केन्द्र प्राप्त होते हैं, ये दोनों केन्द्र परस्पर ठीक अन्तरिन्द्रियों और मन से मिलते-जुलते हैं,

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