पृष्ठ:HinduDharmaBySwamiVivekananda.djvu/९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
हिन्दू धर्म और उसका दर्शनशास्र
 

भौतिक पदार्थ हैं—इसी आकाश से उत्पन्न हुये हैं। वह आगे चलकर प्राण की क्रिया से परिवर्तित होते होते सूक्ष्म से सूक्ष्मतर या स्थूल से स्थूलतर बनता रहता है। आकाश के समान प्राण भी सर्वव्यापी है और सभी वस्तुओं में ओतप्रोत है। आकाश जल के समान है और सृष्टि की अन्य सब वस्तुएँ उसी जल से बने हुये हिम-खण्ड के समान जल में तैर रहे हैं। प्राण ही वह शक्ति है जो इस आकाश को इन सभी विभिन्न रूपों में परिवर्तित करती है। स्थूल शरीर आकाश से बना हुआ उपकरण है, जिसके द्वारा प्राण स्थूल रूपों में—जैसे स्नायुओं के संचालन, चलने, बैठने, बोलने आदि में—प्रकट होता है। वह सूक्ष्म शरीर भी आकाश से—अस्यन्त सूक्ष्म आकाश से—उसी प्राण के विचार रूपी सूक्ष्म भाव में प्रकट होने के लिये बना है। अतः प्रथम तो यह स्थूल शरीर है, उसके परे यह सूक्ष्म या लिंग शरीर है और उसके परे जीव, यथार्थ मनुष्य है। जैसे नख कई बार काटे जा सकते हैं और तो भी वे हमारे शरीर के भाग हैं, अलग नहीं, ठीक इसी प्रकार का सम्बन्ध स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर का है। ऐसी बात नहीं है कि मनुष्य का सूक्ष्म शरीर होता है और स्थूल शरीर भी होता है; शरीर तो एक ही है, पर जो अंश अधिक समय तक टिकता है, वह सूक्ष्मः शरीर है और जो शीघ्र नष्ट हो जाता है वह स्थूल है। जैसे मैं इस नख को अनेकों बार काट सकता हूँ ठीक उसी तरह मैं लाखों बार इस स्थूल शरीर का पात करता हूँ, पर सूक्ष्म शरीर बना ही

९५