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[कबीर की साखी
 

 

शब्दार्थ— तुझ पै - तुम्हारे पास । तुभ्क = तुम्हे । जियरा - जी, प्राण त्तपाइ - तपा करके ।

यह तन जालौं मुसि करुं ज्यूं धूवाँ जाइ सरग्गि ।
मति वै राम दया करैं, बरसि बुझावे अग्नि ॥

सन्दर्भ— विरहिणी की आकांक्षा का अभिनव स्वरूप । शरीर को विरह की अग्नि मे जलाकर भस्म कर डालने की इच्छा, जिसमे धुवा आकाश की ओर जाय और धुंवे के प्रभाव से प्रिय का ध्यान प्रियतमा की सतप्तावस्या की ओर आकर्षित हो ।

भावार्थ— विरहिणी सोचती है कि इस शरीर को इस शरीर को विराहाग्नि मे प्रदग्व जला दूं जिससे धुवाँ आकाश मे जा पहुँचे। सम्भव है कि धुंवे को देखकर चे राम कृपाचारि, अनुग्रह जल बरसकर मेरे विरह जोवित संताप को दूर कर दें।

शब्दार्थ—जालौ=जला दूं । मसि=स्याही । धूवा=धुवाँ =धूम्र । सरागी=सरग=स्वर्ग=मति=शायद, सम्भव है । अग्नि=आग=अग्नि ।

यहु तन जालौ मसि करौं,लिखौं राम का नाउँ।
लेखणि करूँ करंक की,लिखि लिख राम पठाऊँ॥

संदर्भ—विरहीणि की इच्छाएँ नए-नए रुपों में प्रकट हो रही हैं। यहाँ एक और अभिनव कामना। जिस प्रकार भी-प्रिय का ध्यान आकर्षित हो वह कार्य करना है गंतव्य तक पहुंचना है। लक्ष्य की स्मुप्लब्धि ही व्यय बन गया है।

भावार्थ— विरहिणी की आत्मा इच्छा करती है कि इस शरीर की जलाकर मसि(स्याही)बना डालूँ और अपनी हडूडियों को लेखनी बना कर राम के पास विरह निवेदन करती हुई पत्र लिखूँ।

शब्दार्थ—लेखणि=लेखनी, कलम। करंक=हड्डी।

कबीर पीर पिरावनीं, पंजर पीड़ न जाइ।
एक ज पीड़ परीत की, रही कलेजा छाइ॥१३॥

प्रसंग प्रेम एवं विरह की पीड़ा ने पिंजर या शरीर एवं ममं को अभिभूत कर रखा है।

भावार्थ— कबीर दास कहते हैं कि पीड़ा पंजर या शरीर को दुःख देने वाली है परन्तु प्रेम की पीड़ा ममं या कलेजे को अभिभूत कर रखा है।

शब्दार्थ—पीर=पीट=पीड़ा। पिरावनी=पीड़ा देने वालो। पंजर=शरीर। परोती=प्रोति।