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चितावणी कौ अंग]
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आनन्द और सुखों का परित्याग कर प्रभु भक्ति मैं प्रवृत्त होगा बड़ी वास्तविक आनन्द है।

शब्दार्थ—रस चोज = आनन्दोल्लास।

कबीर यहु तन जात है, सकै तौ ठाहर लाई।
कै सेवा करि साधकी, कै गुण गोबिन्द के गाइ॥३६॥

सन्दर्भ—जीव को प्रभु भक्ति और सत्संगति करनी चाहिए।

भावार्थ—कबीर दास जी कहते हैं कि यह शरीर नश्वर हैं शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाला है अतः यदि तु इसे उचित कार्य में लगा सके तो लगा ले। या तो तू साधुओं की सेवा में अपने मन और शरीर को लगा दे या फिर परमात्मा के गुणानुवाद कर ताकि तेरा परलोक सुधर जाय।

विशेष—तुलसी ने भी लिखा है कि—

"बिनु सत्संग विवेक न होई।
राम कृपा बिन सुलभ न सोई॥"

—मानस

शब्दार्थ—ठाहर लाइ = उचित कार्य में लगाना।

कबीर यह तन जात है, सकै तौ लेहु बहोड़ि।
नागे हाथूँ ते गये, जिनकै लाख करोड़ि॥३७॥

सन्दर्भ—परलोक का ध्यान रखना जीवात्मा का परम लक्ष्य है।

भावार्थ—फबीर दास जी कहते हैं कि यह शरीर व्यर्थ में ही नष्ट होता जा रहा है अब भी यदि इसका उद्धार करना चाहो तो अच्छे कर्मों में प्रवृत्त करो संसार में माया के पीछे बावला बना क्यों फिरता है जिनके पास लाखों और करोड़ों की सम्पदा थी वह भी मृत्यु के समय खाली हाथ ही यहाँ से ले गये।

विशेष—(१) दृष्टान्त अलंकार।

(२) तुलना कीजिए।

इकट्ठे गर जहाँ जर सभी मुल्कों के माली थे।
सिकन्दर जय चलां दुनिया से दोनों हाथ गाली थे।

शब्दार्थ—बहोहि = बहोरि = पुनः। नामे = ना ही।

यह तनु कांचा कुंभ है, चोट चेहूँ दिसि खाइ।
एक राम के नांव बिन, जदि तदि प्रसै जाई॥३८॥