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[कबीर की साखी
 

संदर्भ―ईश्वर के नाम स्मरण के बिना इस शरीर को नानाविधि यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं।

भावार्थ―जिस प्रकार कुम्भकार का कच्चा घडा कुम्भकार की थपकी की चोट खाता रहता है उसी प्रकार यह शरीर भी सासारिक यातनाओ को सह रहा है। केवल राम नाम के अवलम्ब के बिना यह जव तब संसार में जन्म लेकर नाना प्रकार के कष्ट पाता है।

विशेष:―रूपक अलंकार।

शब्दार्थ—जदि तदि=जब तत्र।

यह तन काचा कुंभ है, लियां फिरै था साथि।
ढ़बका लागा फूटि गया, कछू न आया हाथि॥३६॥

संदर्भ―शरीर का भविष्य अनिश्चित है।

भावार्थ–कुम्भकार का कच्चा घड़ा जिसे वह हाथ में लिए रहता है कोमल होने के कारण तनिक सी चोट लगने के कारण फूट जाता है और अस्तित्वहीन होने के कारण फिर हाथ मे कुछ नहीं रहता उसी प्रकार इस शरीर का भविष्य भी अनिश्चित होता है यह भी किसी समय नष्ट हो सकता है और नष्ट होने पर कुछ भी हाथ में नहीं आता है।

शब्दार्थ―ढवका=हल्की सी चोट।

काँची कारी जिनि करै, दिन दिन बधै बियाधि।
राम कबीरे रुचि गई, याही ओषदि साधि॥४०॥

संदर्भ―सासारिक तापो को औषधि एक मात्र प्रभु भक्ति ही है।

भावार्थ―हे जीवात्मा! तू अपनी शरीर रूपी केंचुली को वासना से मत कलकित कर। काल रूपी शिकारी दिन प्रति दिन तुझे मार रहा है। कबीर दास जी ने तो अपनी रुचि ईश्वर भक्ति की ओर मोड दी है। हे प्राणी! तू भी उसी औषधि का सेवन कर।

शब्दार्थ―काँची=केचुली। वियाधि=बहेलिया, शिकारी।

कबीर अपने जीव तैं, ऐ दोइ वार्तें धोइ।
लोभ बढ़ाई कारणैं, अछता मूल न खोइ॥४१॥

संदर्भ―लोभ और दर्पं से ही प्रभु भक्ति मे बाधा पड़ती है।