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[कबीर की साखी
 

अपने कर्मों की कुल्हाड़ी से अपने ही शरीर को काट रहा है। जीवन को नष्ट कर रहा है।

विशेष―(१) तुलना कीजिए―

“कोउ न कहु सुख दुख कर दाता।
निज कृत कर्म भोग सुनु भ्राता॥"

(२) रूपक अलंकार।

शव्दार्थ―कुहाडि=कुल्हाडा।

कुल खोयां कुल ऊबरै, कुल राख्याँ कुल जाइ।
राम निकुल कुल मेंटि लै, सब कुल रह्या समाइ॥४५॥

सन्दर्भ–माया जन्य आकर्षणो को भुलाकर ही ब्रह्म प्राप्ति संभव है।

भावार्थ―सासारिक वैभवो का त्याग करके ही सार तत्व ब्रह्म की प्राप्ति संभव है और यदि सासारिक वैभवो की ही रक्षा का प्रयास किया गया तो ईश्वर-प्राप्ति असम्भव है इसलिए हे जीव।तू सांसारिक आकर्षणो से विरक्त होकर ब्रह्म से मिल ले क्योकि सारा संसार उसी मे समाया हुआ है।

विशेष―कुल के दो अर्थ होने से यमक अलंकार।

शब्दार्थ―कुन=सासारिक वैभव। कुल=सारतत्व प्रभु। निकुल=कुल रहित होकर, सासारिक प्रलोभनो से विरक्त होकर। कुल=समस्त आनंद के साधन।

दुनिया के धोखै मुवा, चलै जु कुल की काणि।
तब कुल किसका लाजसी, जब ले धर्या मसांणि॥४६॥

सन्दर्भ―जीव ने यदि प्रभु-भक्ति, साधु सेवा आदि सुकृत्य किये होते तो उसका नाश न होता।

भावार्थ—जो व्यक्ति कुल की मर्यादा आदि के प्रपंचो को लेकर चला वह सांसारिक भ्रमो का शिकार होकर मर गया। मृत्यु हो जाने पर जब शव को ले जाकर श्मशान की अपवित्र भूमि मे रख दिया जाता है तब किसका कुल लज्जित होता है? अर्थात् किमी का नहीं।

शब्दार्थ―काणि मर्यादा, गौरव। लाजसी=लज्जा करता है। मसाणि=इमशान।