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चितावणी अंग]
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दुनियाँ भाँडा दुख का, भरी मुहांमुह भूप।
अदया अलह राम की, कुरहै ऊँणीं कृप॥४७॥

सन्दर्भ—सब कुछ राम की कृपा से ही प्राप्त होता है।

भावार्थ—यह संसार और कुछ नहीं केवल दुःखों का पात्र (स्थान) है जो नीचे से ऊपर तक अभावों से पूर्ण रूपेण भरा हुआ है। श्रेष्ठ राम और अल्लाह की कृपा के बिना बड़े-बड़े कोषागारों के रहते हुए भी जीवात्मा को अभावों का शिकार होना पड़ता है।

शब्दार्थ—भाँडा = वर्तन। अदया = कृपा बिना। अलह = अल्लाह।

जिहि जेवणी जग वँधिया, तू जिनि वधैं कबीर।
ह्वैसी आटा लूँण ज्यू, सोना सेवा शरीर॥४८॥

सन्दर्भ—माया के बंधन में पढ़ने से जीव की मुक्ति नहीं होती है। उसे आवागमन, के चक्र में पड़कर सांसारिक यातनाएँ सहनी पड़ती हैं।

भावार्थ—कबीरदास जी अपने को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि जिस माया की रस्सी से सारा संसार बंधा हुआ है उससे तू अपने को मत बाँध अर्थात् तू माया के प्रलोभन में न पड़ जिस प्रकार आटे की लोई को हाथों के मुक्के सहने पड़ते हैं उसी प्रकार तू भी कंचन के समान शुद्ध शरीर का होकर भी माया के वश में होकर सांसारिक यातना के प्रबल आघातों को बारम्बार सहेगा।

शब्दार्थ—जेवढी = रस्सी, माया बंधन। लूंण = आटे की लोई।

कहत सुनत जग जात है, विषै न सूजो काल।
कबीर प्यालै प्रेम कै, भरि भरि पिवै रसाल॥४९॥

संदर्भ—माया के परिणाम को जान सुनकर के भी जीव उसके आकर्षक से मुक्त नहीं हो पाता है।

भावार्थ—इस संसार के सभी प्राणी माया से मुक्त होने का उपदेश देते और सुनते हुए भी एक-एक कर उसी विषय वासना के मार्ग पर चलते जाते है उनमें उन्हें अपना विनाश दिखाई ही नहीं देता किन्तु कबीर ऐसे साधु व्यक्ति प्रभु-प्रेम सर के प्यालों को भर-भर कर पी रहे हैं और अमित आनन्द की प्राप्ति कर रहे हैं।

शब्दार्थ—विषै = विषय वासना।

कबीर हद के जीव सुँ हित करि भुखाँ न बोलि।
जे लागे बेहद सूँ तिन सूँ अंतर खोलि॥५०॥

का॰ सा॰ फा॰—११