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दिया। कारण कि, सन्तोष गजधन, वाजिधन और रत्नधन आदि सभी धनों से श्रेष्ठ है।[१] कबीर ने मानव-सुलभ तृष्ण की भी आलोचना की, क्योंकि तृष्णा ही मनुष्य का वास्तविक काल है।[२] तृष्णावान् मानव कही भी शान्ति नहीं प्राप्त कर सकता है। शोषण के विरुद्ध भी कबीर ने जनता को उपदेश दिया।[३] कबीर ने स्थान स्थान पर गरीबी की सराहना की है। उन्होंने गरीब को "दुतिया के चन्द्र के समान" वन्दनीय बताया है।[४] कारण कि गरीब स्वयं सभी के उत्पीड़न को सहन करता है और प्रतिकार में किसी को कष्ट नहीं पहुँचाता है। वह स्वयं अपने ठगाने में सुख का अनुभव करता है। ग़रीबी सबसे अच्छी है कारण कि लघुता से ही मनुष्य महत्ता की ओर अग्रसर होता है। कबीर ने उस धन को अभिशाप माना है जिससे ईश्वर के भजन में बाधा पड़े। इस प्रकार समय‌ की आवश्यकतानुसार कबीर ने सन्तोष और दीनता का महत्व प्रदर्शित करके दीन और भुक्तभोगी जनता को अपनी स्थिति में ही स्थिर रहने और ईश्वर प्रेम में रत रहने का उपदेश दिया।

साहित्य में धार्मिक स्थिति के चित्रण की परम्परा सरहपा से आरम्भ होती है। सरहपा के समय में पाखंड और वाह्याडम्बरों की अधिकता थी। उन्होंने ब्राह्मण, वेद, साहित्य दण्डी, यज्ञ, यन्त्र मन्त्र आदि की आलोचना की है।

जिससे ज्ञात होता है कि आठवीं शताब्दी में ही धर्म के क्षेत्र में वाह्याडम्बर

और पाखण्ड समाविष्ट हो गए थे। सरहपा के पश्चात् दसवीं शताब्दी के कवियों में से तिलोपा काव्य में तत्कालीन धार्मिक स्थिति का चित्रण उपलब्ध होता है तिलोपा के समय में धर्म के मूल सिद्धान्तों को त्यागकर जनता तीर्थं, तप, बहुदेवोपासना में लग रहे थे तथा साधक भोगी हो रहे थे। योगीन्दु (१००० ई॰) के समय तक ये दोष कुछ और भी बढ़ गए। इस समय की जनता विभिन्न 'पंथों' और


  1. गोधन गजधन वाजिधन और रतन धन खान।
    जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान॥

  2. की त्रिस्ना है डाकिनी की जीवन का काल।
    और और निस दिन चहै जीवन करै विहाल॥

  3. कबिरा आप ठगाइये और न ठगिए कोय।
    आप ठगे सुख ऊपजै और ठगे दुख होय॥

  4. सब ते लघुताई झली लघुता से सब होय।
    जस दुतिया को चन्द्रमा सीस नवै व कोय॥