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धर्म में व्याप्त विकारों तथा वाह्याडम्बरों की निन्दा करके कबीर पथ-भ्रष्ट तथा लक्ष्यच्युत जनता को धर्म के राजमार्ग अथवा उचित मार्ग पर लाना चाहते थे। धर्म और साधना में कबीर को ऐंचातानी पसन्द नहीं थी। साधना तो अत्यन्त प्रिय विषय है। साधना के क्षेत्र में दैनिक औचित्य के मध्यस्थ कोई भी विरोधी भावनाएँ नहीं हैं। कबीर इस सत्य से परिचित थे। इसी कारण कबीर मर्म और साधना के सहज पथ को ग्रहण करने के लिए अपनी समकालीन जनता को उपदेश दिया। कबीर ने जनता को बताया कि समस्त दुरुहताओं और दाँव-पेंचों की क्या निःसारता है और सहज पथ ही सत्य पथ है जिसके द्वारा कोई भी व्यक्ति मुक्ति प्राप्त कर सकता है।"[१] सहज पथ सबके लिए खुला है। उनमें जात-पाँति वर्ग कुल आदि का प्रतिबन्ध नहीं है। सम्प्रदाय और मत-मतांतरों की भाँति इसमें वाह्याडम्बर को आवश्यकता नहीं है।

मर्म के अन्तर्गत वाह्याडम्बरों का कोई अस्तित्व नहीं है, फिर भी हिन्दू और इस्लाम दोनों ही धर्मों में यह दोष समान रूप से वर्त्तमान है। कबीर ने देखा कि धर्म के वास्तविक रूप को वाह्याडम्बरों ने आच्छादित कर रखा है। अतः उन्होंने मतवाद, शास्त्र, कतेव, तीर्थ, व्रत, नमाज आदि की व्यर्थता जनता के समक्ष बारम्बार रखी। सबसे पहले कबीर ने हिन्दू और मुसलमानों के धार्मिक ग्रन्थों की आलोचना की। उन्होंने बताया कि ये ग्रन्थ सभी को भ्रम में डालने के लिए रचे गए हैं।[२] करीब ने


  1. सहज सहज सब को कहै सहज न चीन्हैं कोइ।
    जिन्ह सहजैविषया तजी सहज कहीजै सोइ॥
    सहज सहज सबको कहै सहज न चीन्है कोइ।
    पाँचू राखै परसतौ सहज कहीजै सोइ॥
    सहजै सहजै सब गए सुत विन कामणिकाम।
    एक मेक ह्वै मिलिरह्या दास कबीरा राम॥

  2. हिन्दू मुसलमान दो दीन सरहद बने
    वेद कतेव परपंच साजी।

    —ज्ञानगुदारी पृ॰ १६


    वेद किताब दोष फंद सवारा। ते फंदे पर आप विचारा॥

    —बीजक पृ॰ २६९


    चार वेद ब्रह्मा निज ठाना। मुक्ति का मर्म उनहू नहि जाना॥
    हबीबी और नवी कै कामा। जितने अमल सौ सबै हरामा॥

    —बीजक १०४, १२४