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मूर्ति-पूजा के विरोध में भी बहुत कुछ लिखा है।[१] कबीर तो मन्दिर की नीव को ही अस्थिर मानते हैं।[२] इसी प्रकार उन्होंने मुसलमानों की 'बाँग' और मस्जिद की व्यर्थता बताइ।[३] हिन्दुओं की एकादशी और मुसलमानों के तीस रोजा की भी कबीर ने आलोचना की।[४]

हिन्दू मुसलमानों की 'राम', 'रहीम' सम्बन्धी भेद-भावना को मिटाने के लिए कबीर ने ब्रह्म के अद्वैत स्वरूप का उपदेश दिया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा 'साहेब मेरा एक है दूजा कहा न जाय।'[५] इतना ही नहीं 'साहब' को द्वैत बताने वाले को कबीर "दूजा कुल को हाय" कहने तक का साहस रखते हैं।[६] कबीर ने बताया कि हिन्दू और मुसलमानों की एक ही राह है।'[७] दोनों ही एक ही कलाकार की कृतियाँ हैं। उनमें दृष्टिगत भेद मानवकृत है।

कबीर ने भेष बनाकर घूमने की प्रकृति की भी तीव्र आलोचना की है। माला, तिलक, छाप, गेरुआ वस्त्रों आदि की निःसारता पर उन्होंने बार-बार जोर दिया है।[८]


  1. पाहन पूजे हरि मिलै तौ मैं पूजूं पहार।
    ताते यह चाकी भली पीस खाय संसार॥

  2. नीव विहूणा देहुरा देह विहूणा देव।
    कबीर तहाँ विलंविया करे अलष की सेव॥

  3. काकर पाथर जोरि के मसजिद लई चुनाय।
    ता चढि मुल्ला बाग दे क्या बहिरा हुआ खोदाय॥

  4. हिन्दू एकादसि चौबिस रोजा मुसलिम तीस बनाए।
    ग्यारह मास कहौ किन टारौ ये केहि माहि समाये॥
    —बीजक पृ॰ ३८८

  5. कबीर वचनावली, पृ॰ १
  6. "जो साहब दूजा कहै दुजा कुल को होय।" २/९
  7. हिन्दू तुरुक की एक राह है सतगुरु इहै बताई।
    कहहि कबीर सुनहु हो सन्तो राम न कहेउ खुदाई॥
    —बीजक शब्द १०

  8. कर सेती माला जपै, हिरदै वहै डडूल।
    पग तौ पाला मैं गिल्या भाजण लागी सूल॥
    कर पकरैं अंगुरी गिनै मन धावै चहुँ ओर।
    जाहिं फिरायाँ हरि सो भया काठ की ठौर॥
    मूंड मुडावत दिन गए अजहूँ न मिलिया राम।
    राम नाम कहु क्या करै जे मन के औरे काम॥
    —क॰ ग्र॰ पृ॰ ४५-४६