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[कबीर की साखी
 

राम नाम के अमूल्य रत्न को पहचानता नही और पीतल के पात्र खाने के लिए घूमता रहता है उसी मे मस्त है यह ठीक नहीं है।

शब्दार्थ―तष्टा=तसला। टोकणी=टोकती। सुभाइ=स्वभाव। चाइ= चाव, इच्छा।

कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि धरी षटाइ।
राज दुवारां यौं फिरै, ज्यूँ हरिहाई गाई॥६॥

संदर्भ―पाखंड करने और ईश्वर की भक्ति करने में बहुत बड़ा अंतर है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार के स्वामी और सन्यासी सभी लोभी हैं वे बाहर से देखने मे तो विरक्त लगते हैं और अंतःकरण मे लोभ व्याप्त रहता है जिस प्रकार पीतल पर खटाई लगा देने से क्षण भर के लिए उसमे चमक आ जाती है उसी प्रकार पाखंडी सन्यासी भी क्षण भर के लिए विरक्त हो जाते हैं। जिस प्रकार हरियाली के लोभ मे पड़ी हुई गाय बार-बार रोकने पर भी ही खेत की ओर दौडती चली जाती है उसी प्रकार वे सन्यासी भी लोभासक्त होकर धनवानो के दरवाजे पर जाया करते हैं।

शब्दार्थ―हरिहाई=जो हटाने पर भी नहीं हटती है।

कलि का स्वांमीं लोभिया, मनसा धरी बधाई।
दैंहि पईसा व्याज कौं, लेखाँ करतां जाइ॥७॥

संदर्भ―कलियुग के सन्यासी लोभी वृत्ति के होते हैं।

भावार्थ―कलियुग के स्वामी सन्यासी अत्यन्त लोभी होते हैं वे अपनी इच्छाओ-अभिलाषाओ को अत्यन्त बढा चढ़ाकर रखते हैं। वे व्याज पर रुपया उधार देत हैं और बड़ी-बडी बहियो (बहीखाता) मे उसका हिसाब रखते हैं तब भला बताइए कि उनमे और एक ससारी प्राणी मे क्या अन्तर है?

शब्दार्थ―मनसा=इच्छाएं, अभिलाषाएं।

कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ।
लालच लोभी मसकरा, तिनकूॅ आदर होइ॥८॥

संदर्भ―कलियुग मे लोभी और मनचले लोग ही सम्मान के पात्र होते हैं।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि यह कलियुग अत्यन्त खोटा है इसमें कोई श्रेष्ठ मुनि नहीं मिल पाता है इसमे तो उन्ही व्यक्तियों का सम्मान हो पाता है जो लालची, लोभी और मनचले होते हैं।

शब्दार्थ―मूनियर=मुनिवर=श्रेष्ठमुनि। मसकरा=मसखरा, मनचला।