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भेष कौ अंग]
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मूंड मूडावत दिन गए,अजहू न मिलिया राम।
रांम नांम कहु क्या करै,जे मन के औरे काम॥१२४॥

सन्दर्भ――सांसारिक कार्यों मे रत होकर मन राम नाम का स्मरण नही कर पाता है।

भावार्थ――सिर को मुडवाते हुए मनुष्य की पूरी आयु क्षीण हो गई किन्तु अन्तिम समय तक राम (ब्रह्म) नही मिल सके। जब मन ही नाना प्रकार के माया जाल मे फंसा हुआ है तो फिर भला बाहर से राम नाम का उच्चाण ही क्या कर सकता है?

श्ब्दार्थ――दिन गए=आयु व्यनीत हो गई।

स्वांग पहरि सो रहा झया, खाया पीया षूंदि।
जिहि सेरी साधू नीकले,सा तौ मेल्ही मूंदि॥१४॥

सन्दर्भ――उपासना के वास्तविक मार्ग पर कुकर्मों के कारण साधक नही चल पाते है वे ऐश आराम मे हो लगे रहते हैं।

भावार्थ――हे कपटो साधक! तू रग विरंगे कपडो को ही पहनकर आनन्द-पूर्वक खा-पीकर मौन उडाता रहा किन्तु जिस मार्ग से होकर साधु जाते हैं अपने कुकर्मो के कारण तूने उस मार्ग को अपने लिए बन्द कर लिया है। उस पर तू चल ही नही सकता।

शब्धर्थ――सोरहा=सुन्दर। बूंदि=आनद पूर्वक। सेरी=गली। मेल्ही मूंदि=ब्न्दू कर ली।

बैसनों भया तौ का भया,बूझा नहीं बिबेक।
छापा तिलक बनाइ करि,दगध्या लोक अनेक॥१६॥

सन्दर्भ――केवल वैष्णव मत मे दीक्षित हो जाने से ही प्रभू प्राप्ति नही होती है।

भावार्थ――यदि तूने विवेक की की ज्ञान प्राप्ति नही की तो फिर वैष्षणव मत मे दीक्षित होकर वैष्षणव वन जाने से ही क्या लाभ हुआ? छापा-तिलक आदि लगाकर अनेको लोग इस सांसारिक तापो मे दग्घ होते रहते है। वास्तविकता तो यह है कि प्रभु वेष भूषा से नही वरन् सच्ची भक्ति से ही प्राप्त होते है।

शब्दार्थ–―वैसनो=वैष्षणव। बुआ=समझा।

तनकौ जोगी सब करैं, मनकों बिरला कोइ।
सब बिधि सहजैं पाइए,जेमन जोगी होइ॥१७॥

सन्दर्भ―मन इच्छारहित होकर ही सिद्धियो को प्राप्त कर सकता है।