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[कबीर की साखी
 

 

कबीर सोचि बिचारिया, दूजा कोई नांहिं।
आपा पर जब चीन्हियां, तब उलटि समाना मांहिं॥३॥

सन्दर्भ—संसार में ईश्वर ही सब कुछ है।

भावार्थ—कबीर कहते हैं, कि गम्भीर विवेचन के पश्चात् यह निष्कर्ष निकलता है कि संसार में ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है यह सब उसी का है। इस आत्म तत्व को जब जान लिया तब मेरी वृत्तियाँ अन्तर्मुखी होकर ईश्वर भक्त में प्रवृत्त हो गई।

शब्दार्थ—दूजा = दूसरा।

कबीर पांणी केरा पूतला राख्या पवन सँवारि।
नांनां वांणी बोलिया, जोति धरी करतारि॥४॥

सन्दर्भ—मानव पानी के बुदबुदे के सदृश है।

भावार्थ—कबीर दास जी का कथन है, कि मनुष्य पानी के बुलबुले के समान है जिसको प्राण तत्व की वायु ने यह रूप दे रखा है। इस बुलबुले में सृष्टिकर्त्ता निरंजन ने अपनी ज्योति स्थापित कर रखी है, जिसके कारण वह अनेक प्रकार से विविध रूपों में अपने विचार प्रकट करता है।

शब्दार्थ—सवारि = सम्भाल कर। जोति = ज्योति।

नौ मण सूत अलूझिया, कबीर घर घर बारि।
तिनि सुलझाया वापुढे, जिनि जाणीं भगंति मुरारि॥५॥

सन्दर्भ—ईश्वर भक्त ही इस भवजाल से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।

भावार्थ—कबीर दास जी का कथन है, कि प्रत्येक मानव संसार के कर्म जाल एवं विचार समूह रूपी नौ मन सूत को सुलझाने में लगा हुआ है जो घर घर के द्वार पर उलझा हुआ पड़ा है अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति मायादिक प्रपंच रूपी उलझे हुए सुत को सुलझाने का प्रयत्न करता है, परन्तु इसे केवल वही सुलझा सका है जिसने ईश्वर की भक्ति को और उसमें ध्यान लगाया।

शब्दार्थ—बारि = द्वार।

विशेष—नौमण सूत = इसमें पंचविषय शब्द स्पर्श, रूप, रस, गंध,—तीन गुणं सत् रज, तम एवं मन समस्त सांसारिक क्लेश और परितापों का उद्भावक)।

आधी सापी सिरि कटे, जोर बिचारी जाई।
मनि परतीति न ऊपजै तौ राति दिवस मिलिगाइ॥६॥

सन्दर्भ—आस्था एवं विश्वास व्यवहारिक हैं।