पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/२५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
विचार कौ अंग]
[२४७
 

 

भावार्थ――किसी के द्वारा प्रतिपादित अर्द्ध सत्य प्राणो का ग्राहक हो जाता है। कबीर दास कहते हैं यदि मन मे श्रद्धा प्रेम और विश्वास नहीं है तो सखियो का दिन रात एकाग्र होकर गान करने से कोई लाभ नही।

शब्दार्थ――परतीति=विश्वास।

सोई अषिर सोई बैयन, जन जू जू बाचवंत।
कोई एक मेलै लवणि, अमीं रसांइण हुंत॥७॥

सन्दर्भ――काव्य के विषय मे कबीर का व्यापक विचार।

भावार्थ――उन्ही अक्षरो और उस वाणी जिसका प्रयोग लोग नित्य पृथक्-पृथक् रूप से करते हैं, कोई बिरला एक व्यक्ति अर्थात् कवि उसमे ऐमा लावण्य ला देता है कि अमृतमयी रसयुक्त कविता बन जाती है।

शब्दार्थ――अषिर=अक्षर। वैयन=वचन। वाचवत=बोलते हैं। लवण= नमक, लावण्य, रसाइरण= काव्य।

हरि मोत्यां की माल है, पोई काचै तागि।
जतन करी झंटा घंणां, टूटैगी कहूँ लागि॥८॥

सन्दर्भ――हरि भक्ति से प्राप्य एव तर्क से अप्राप्य है।

भावार्थ――हरि उस मोतियो को माला के सदृश है जो कच्चे धागे मे पिरोई गई है, यदि उसके साथ यत्न करोगे, जोर लगाओगे तो अनेक झंझट उत्पन्न होंगे अर्थात् विचार सघर्षं से उलझने बढ़ जाएगी, सम्भव है कि इससे धागा टूट भी जाए।

शब्दार्थ――मोत्याँ की= मोतियो की। काचै तागि=कच्चा धागा। भंटा=झझट।

मन नहीं छाड़े विषै, बिषै न छाड़े मन कौ ।
इनकौं इहे सुभाव, पूरि लागी जुग जन कौं॥६॥

सन्दर्भ――मन और विषय विकारो का सम्बन्ध है।

भावार्थ――कबीर कहते हैं कि मन विषय का परित्याग नहीं करता और विषय मन को नहीं छोड़ता है। अर्थात् मन विषय-वासनाओ मे उलझ गया है और विषय वासनाएं मन मे घर कर चुकी है। इनका स्वभाव ही ऐसा है। ये दोनों मनुष्य के साथ परिपूर्ण रूप से चिपटे हुए हैं।

शब्दार्थ―विषै=विषय, वासना। सुभाव=स्वभाव।

खंडित मूल बिनास, कहौ किंम बिगतह कीजै।
ज्यूॅ जल मैं प्रतिव्यंब, त्यू सकल रांमहिं जांणीजै॥१०॥