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[कबीर
 

है इस प्रकार जो व्यक्ति सब प्रकार की इच्छा और अहकार से रहित होकर आचरण करता है, वही सच्चा भगवद् भक्त है।

अलंकार—(i) पदमैत्री—राजस तामस।
(ii) अनुप्रास—परम पद पाया।
(iii) रूपक—माधव चिन्तामणि।
(iv) विरोधाभास—रमै उदासा।

विशेष—इस पद में पूर्वपद के समान सत, भगवद्भक्त अथवा स्थित प्रज्ञ के लक्षणों का वर्णन कुछ अधिक विस्तार के साथ किया गया है।

पुरुष नपुंसक नारि का जीव चराचर कोइ।
सर्व भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ।

(v) तेरा जन एक आध है कोई तुलना करे—

नर सहस्र महँ सुनहु पुरारी। कोउ एक होइ धर्म व्रतधारी।
धर्मशील कोटिक महँ कोई। विषय बिमुख विराग रत होई।
कोटि विरक्त मध्य श्रुति कहई। सम्यक ग्यान सकृत कोई लहई।
ग्यानवत कोटिक महँ कोऊ। जीवन मुक्त सकृत जग सोऊ।
तिन्ह सहस्त्र मह सब सुख खानी। दुर्लभ ब्रह्म लीन विग्यानी।
धर्म सील विरक्त अरु ग्यानी। जीवन मुक्त ब्रह्मपद प्रानी।
सब ते तो दुर्लभ सुरराया। राम भगति रत गत मद माया।

(रामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास)

(१८५)

हरि नांम दिन जाइ रे जाकौ,
सोई दिन लैखै लाइ रांम ताकौ॥टेक॥
हरि नांम मैं जन जागै, ताकै गोव्यद साथी आग॥
दीपक एक अभगा, तामै सुर नर पड़ै पतंगा॥
ऊँच नींच सम सरिया, ताथै जन कबीर निसतरिया।

शब्दार्थ—जागै = सजग रहता है। अभंगा = अखण्ड। सरिया = सरियाना अर्थ व्यवस्थित करना। ठीक तरह से रखना है।

संदर्भ—कबीर राम-नाम की महिमा का गायन करते हैं।

भावार्थ—व्यक्ति को दो दिन भगवान नाम-स्मरण में व्यतीत होता है, उसका वही दिन सार्थक हुआ समझों।जो व्यक्ति हरि के नाम के प्रति सजग बना रहता है अर्थात् राम-नाम जिसका आधार है, उसके भगवान साथी हैं और रक्षक है। माया रूपी दीपक अबाध गति से जलता है, जिसमें देवता और मनुष्य रूपी पतंगें रूपांतरित के कारण उड़ाते रहते हैं। भगवान ने ऊँच-नीच सबको समान रूप से व्यवस्थित किया है अथवा भगवान ने ऐसी व्यवस्था की है कि ऊँच-नीच सबको