पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६२६ ] [ कबीर

   श्रौर फिर सत्य रुप अविकारी निरजन की खोज करो । कबीरदास कहते हैं कि मेरे
   मतानुसार ब्रह्म की गति का ज्ञान प्राप्त किए बिना यह शरीर कच्चे घडे के समान 
   निप्प्रयोजन सिद्ध होता है अर्थात्  जो व्यक्ति ब्रह्म की खोज मे नही लगता है, उसका
   जीवन व्यर्थ है ।
            अलकार  -(।)  साग रुपक -पूरा पद । शरीर और बाघ के मध्य 
                         साम्य द्वारा ।
                    (॥)  पदमैत्री - सत तत ।
                    (॥।) सभग पद यमक रस रसना , गति जुगति ।
            विशेष- (।) कबीरदास सन्यासियो को सच्चा योगी बनने को कहते हैं ।
      ब्रह्माचार के प्रति कबीर का विरोध स्पष्ट है । 
                  (॥) योग की प्रक्रियाओ के लिए देखे टिप्पणी पद सख्या        ४,१५७,१६४ तथा २०२ ।
 
                                 (२०६)
            अवधू ऎसा ज्ञांन विचारी,
                         ज्यू बहुरि ऩ ह्वै संसारी ॥ टेक ॥
                च्यत न सोज चित बिन चितवै, बिन मनसा मन होई ।
                अजपा जपत सुनि अभि अतरि, यहु तत जाने सोई   ॥
                कहै कबीर स्वाद जब पाया, बंक नालि रस खाया   ।
                अमृत झरै ब्रह्म परकासै, तब ही मिलै रांम राया    ॥ 
              सदर्भ -कबीरदास राम-मिलन के मार्ग का वर्णन करते हैं।
     भावार्थ -रे साधक योगी ! तुम ऐसा ज्ञान धारण करो जिससे तुम्हे इस 
   सागर मे फिर दोबारा न आना पड़े । उस परम तत्व का चिन्तन करो जो बिना
   चित के ही सम्पूर्ण विश्व की चिन्ता करता है तथा जिसका मन तष्णा आदि के
   विक्षेपो मे रहिन है । जो योगी अपने हॄदय एवं शून्य मण्डल  मे अपने माया रहित
   आत्मस्वरप मे अवस्यित र६ कर अजपा( बिना बोले) जाप करता है, वही परम 
   तत्व को जानना है । कबीर कहते हैं कि जब व्यक्ति इस तत्व के साक्षात्कार   का
   स्वाद एक बार चख लेता है तो वह आध्यात्मिकता की ब्रह्मनाल का रस पीने के 
   लिए निरन्तर आनुर बना रहता है और उसका स्वाद लेता रहता है । जब ज्ञान का 
   यह  निरन्तर भरता रहता है