पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३१९

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मन मदुफर मन के तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौ ।

                                     -गोस्वामी तुलसीदास 

पारब्रह्म देख्या हो तत बाड़ी फूली, फल लागा बडहूली । सदा सदाफल दाख बिजौरा कौतिकहारी भूली ॥ टेक ॥ द्वादस कूंवा एक बनमाली, उलटा नोर चलावै । सहजि सुषमनां कूल भरावै, दह दिसी बाडी पावै ॥ ल्यौकी लेज पवन का ढीकू, मन मटका ज बनाया । सत की पाटि सुरति का चाठा,सहजि नीर मौकलाया । त्रिकुटी चढचौ पाव ढौ ढारे, अरघ उरघ की क्यारी ॥ चंद सूर दोऊ पांणति करिहै, गुर मुषि वीज बिचारी ॥ भरी छावड़ी मन वैकुठा, सांई सूर हिया रगा । कहै कवीर सुनहु रे सतौ, हरि हम एकै सगा ॥

शब्दाथ्र- बडहूली = बडहल, बडे-बडे । सदाफल=हमेशा फलने वाला । दाख=अगूर । द्वादस कूंआ=बारह कुएँ, यहाँ १२ पखुडी वाले अनाहत चक्र से तात्पयं है। कूल=किनारा । लौ=ध्यान । तेज=रस्सी । पवन=प्राणायाम । ढीकू=ढीकुली । पाटी । चाठा=कुए का किनारा । मुकलाया=मुक्त किया, बहाया। पाव ढौ ढारे=पानी बहाकर क्यारियो को भलीभाँति भरना । अरघ= नीचे । उरघ=ऊपर । पाणति=पानी को फलाना । मुषि=मुख । छावड़ी= डलिया । वैकु ठा=वैकुठ को प्राप्त,अत्यधिक उल्लसित ।सूर=शूर ।हिया रगा= हृदय प्रेम मे रग गया

       संदभ्र- पूव्र पद के ममान ।