पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३२०

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ग्रन्थावली [६३५] की वाडी इस जल से दशो दिशाओ मे सर्वत्र अभिपिक्त हो जाती है। अर्थात् समस्त इन्द्रियाँ इस आनंद के जल से आप्लावित हो जाती है।

       ध्यान की रस्सी,प्राणायाम की ढीकुली,मन का घडा, सतोगुण की पटिया, तथा सुरति

रूपी कूप का किनारा-जल निकालने के इन साधनो से साधक रूपी वनमाली ने सहज आनन्द का बहुत सा जल बहा दिया है। त्रिकुटि मे अवस्थित यह साधक अपने पैर से पुर ढुरकाकर नाडियो अथवा इन्द्रियो रूपी नीची-ऊँची सब क्यारियो को पानी देता है। चन्द्र और सूर्य नाडियाँ इस पानी को विभिन्न नालियो के द्वारा चारो ओर फैलायेगी, तथा सत् गुरु के मुख से निकले हुए विचार-पूर्ण शब्द अर्थात् ज्ञानोपदेश ज्ञान और भक्ति के बीज रूप है अर्थात् ईश्वर के प्रति जागृत अनुराग से जनित सरसता मे गुरु के मुख से निकले हुए उपदेश ही वीजो के रूप मे विकीर्ण होकर भक्ति एवं तत्वज्ञान के रूप मे पल्लवित होगे। मन की डलिया अब आत्मबोध भक्ति आदि के फलों से भर गई है, और हृदय इस प्रकार् उल्लसित है मानो उसे स्वर्ग मिल गया हो। मन शूरवीर परमात्मा के प्रेम मे रग गया है। कबीरदास कहते हैं कि है सतो ! सुनो । अब मै और हमारे प्रभु परमात्मा एक साथ ही रहने लगे है।

     भलंकार-  (१) रूपकातिशयोक्ति-फल, कौतिक हारी, छाबडी ।
            (२) सभग पद यमक-सदा सदाफल ।
            (३) चपलातिशयोक्ति-देखा ˈˈˈˈफूली ।
            (४) छेकानुप्रास-सहजि सुषुम्ना, दह दिसि,साई सूर, हरि हम ।
            (५) रूपक-लौ ˈˈˈ  ˈˈचाठा,बीज बिचारा ।
            (६) व्रुत्यानुप्रास-सुनहु सतौ सगा ।
    विशेष--(१) हरि हम एकै सगा-सालोक्य मुक्ति कि व्यजना है। वैसे व्यग्य भाव यही है कि कबीर और भगवान का तादात्म्य हो गया है। अन्यत्र भी लिखा है कि-
      तब हम वैसे, अब हम ऐसे, इहै जनम का लाहा ।
      ज्यूं जल मे जल पैसि न निकसै, यूं ढरि मिल्या जुलाहा ।

तथा- बालम आओ हमारे गेह रे ।

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      एकमेक ह्व सेज न सोवै, तब लगि फैसा नेह रे ।
    नित्य दर्शन की आकाक्षा करने वाले भक्तजन सालोक्य मुक्ति की ही कामना करते आए है ।
     (२) नाथ सम्प्रदाय के प्रतीको का प्रयोग है ।
     (३) कायायोग की सम्पूर्ण सिध्दियाँ प्रेम एव तत्व दर्शन से प्राप्त् हो जाती है । कबीर का

भक्त रूप स्पष्ट ही व्यजित है ।