पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ग्रन्यावली ] [ ६७ १

मुगध=मूर्ख् । राखत-रक्षा करता हुआ । अमराल=असधार, आँसुओं की धार| जिम्या= जीभ । सुकरति=सुकृत, पुण्य । तलव=बुलावा ।

सदर्भ- कबीर जीवन भी क्षण भगुरता का प्रतिपादन करते है और कहते हैं कि राम-नाम का स्मरण अवश्य करना चाहिये ।

भावार्थ-हे जीव । अहभाव तथा अपना-तेरी के फेर में तेरा सम्पूर्ण जीवन व्यतीत हो गया । तूने अपना सम्पूर्ण जीवन इसी प्रकार व्यर्थ गंवा दिया, परन्तु भगवान का नाम नहीं लिया । प्रारम्भ के बारह वर्षों तक तो तू बालक बना रहा और वह समय वालकपन के नाम पर खेलकूद मे नष्ट कर दिया । इस के बाद बीस वर्ष की अवस्था तक (किशोरावस्था मे) किसी प्रकार की साधना नही की । तीस वर्ष की अवस्था तक (अथवा युवावस्था मे) तूने राम का भजन न किया इसके बाद तेरी वृद्धावस्था आ गई और अब तू पशचाताप करने लगा । जीवन व्यतीत हो जाने पर पशचाताप करना व्यर्थ है । यह तो तालाब के सूख जाने के बाद उसके चारों ओर मेड बाँधने के समान है अथवा काटे हुए खेत की रखवाली के लिए उसके चारों ओर बाड लगाना है । यह तो ऐसा ही है जैसे चोर आकर किसी का घोडा चुरा कर ले गया हो और उसका मूर्ख स्वामी उसकी रास पकडे घूम रहा हो (और इस भ्रम में हो कि घोडा उसके अधिकार में है ।) अब तो सिर, पैर, हाथ सभी अग काँपने लगे हैं और आँखों से बराबर पानी बहता रहता है । जीभ मुख) से ठीक तरह बोला नही जाता है । पूर्ण शक्तियों के नष्ट हो जाने के बाद अव तू पुण्य-कृत्य की बात करता है । कबीरदास कहते हैं कि हे सतो । अनेक व्यक्तियों ने धन का सचय किया । वह धन-सम्पति किसी के साथ नही गई । भगवान का बुलावा आते ही उन्हें गृह द्वार छोडकर चला जाना पढा । अथवा इस जीव ने भी बहुत सी सम्पति एकत्र कर रखी है । अन्य जीवो की भाँति इसके साथ भी कुछ नहीं जाएगा और भगवान का बुलावा आने पर इसको भी घर-द्वार, महल, मन्दिर सब कुछ छोडकर चल देना पडेगा ।

अलकार-() पुनरुक्ति प्रकाश -- मेरी मेरी । (11) वृत्यानुप्रास-बारह बरस बालमन, बीप बरस । (111) दृष्टान्त-- सूकै ॰ फिरै ।

विशेष-समभाव के लिए शकरचार्य का भज गोविन्द स्नोय देखें - अग

गलित तलितं गुड इत्यादि । ( २४४ ) जाहि जाती नांव न लीया, फिरि पछितावै गौ रे जीया 1। टेक ॥ धधा करत चरन कर घाटे, आउ घटी तन खोना ।

विषे विकार बहुत रुचि मांनी, माया मोह चित दीन्हा॥