पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६८२] [ कबीर

 'आत्म-बोध' का साधक-कर्म-निर्लिप्त रहना है ! अत: उस पर यमराज का कोई अधिकार नही रहता है। यमराज के अधिकार की सीमा मे आकर उसके निर्णय के अनुसार व्यवहार करने को विवश होना ही 'यमराज की चुगी भरना' है।
                     (२५५)
     मीया तुम्ह सौं वोल्या बणि नहीं आवे।
   हम मसकीन खुदाई बदे , तुम्हारा जस मनि भावै॥ टेक॥
   अलह अवलि दीन का साहिब, जोर नहीं फुरमाया। 
   मुरिसद पीर तुम्हारै है को कहौ कहाँ थै आया॥
   रोजा करे निवाज गुजारे, कलमे भिसत न होई।
   सतरि कावे इक दिल भीतरि, जे करि जानै कोई॥
   खसम पिछांनि तरस करि जिय मै, माल मनी करि फीकी।
   आपा जानि सांई कूं जांनै, तब ह्वौ भिस्त सरीकी॥
   माटी एक भष धरि नांनां, सब मै ब्रहा समानां।
   कहे कबीर भिस्त छिटकाई, दोजग ही मन मानां॥

शब्दार्थ-मीया =मिया, मालिक,नम्गानित जन का वोधक (श्रीमऩ् की भांति)। मिसकीन= दीन,अकिचन। बदे-सेवक, दास। अवलि = सर्व प्रघम। फुरमाया= आज्ञा दी। मुरिसाद=मुरणिद=सीधा मगं दिखाने वाला, गुरु। पीर= महात्मा, सिव्द। कलमा= वह वाक्य जो मुसलमानो के धमं-विश्वास, का मूल मन्य है- जा उलाह, इल्लिल्लाह, मुहम्मद, रसूलिल्लाह। मिसत=वहिश्त,स्वग। मतरि=सत्तर। काबे= मकूका की एक चौकोर इमारत जिसकी नींव हग्राहीम की रखी हुई मानी जाती है। खसम-स्वामी। तरस= करूणा। गाल मनी= गाल-मन,वैभव के प्रति आमत्कि। फीकी= कम, मद। मरीकी= सम्मिलित शिरपनदार= शामिल होने का अधिकारी। छिटकाई = आगत्कि छोड दी।दोज़ख= नरक। मन माना= मन को आस्वम्त कर लिया है।

सदर्भ- कबीर इस पद मे विशेष रूप से मुसलमानो के वाहाचार का विरोध करके एकत्व का प्रतिपादन करते है। भावार्थ- है मिया जी(आदरणीय मुसलमान साधक), तुमसे कुछ केहना नहीं चाहता हू। हम अकिंचन लोग जो भगवान के सेवक है, तुम हमे।भगवान को सर्वप्रथम दीन उपक्तियो का स्वमी है। उन्हे किसी पर भि जूर आज़ामाने(दोनो पर अत्याचार करने) की आवश्यकता नही दी है।