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ग्रंन्थावली ] [७१ं३

 आलोचक 'पंच सुवटा' का अर्थ "पाच ज्ञानेन्द्रियाँ" करते हैं। तब भी इसके मूल
 भावार्थ मे कोई अन्तर नही पडता है । तब इसका अर्थ इस प्रकार होगा कि पाँचो 
 इन्द्रियाँ रुपी तोते यहाँ आकर बैठ जाते हैं, अर्थात इन्द्रियाँ बाह्य विषयो से विमुख
 होकर इस आनन्दानुभूति का भोग करने लगती है १) कबीर कहते हैं कि मेरी चेतना
 की अवस्थिति शुन्य मे हो गई है अर्थात आत्मा चेतना का पर्यवसान विश्व-चेतना मे
 हो गया है । मैं जहाँ से बिछुडा था, वही आकर बैठ गया हूँ अर्थात् मे अब तक 
 भगवान(परमात्मा) से वियत्क था, अब उसी मे समाहित (तन्मय) हो गया हूँ । यह
 भत्त्क कबीर परमपद के मार्ग का पाथिक है । उसको अपना अभीप्सित मार्ग मिल
 गया है और उसने उसको पूरे उत्साह के साथ अपना लिया है ।
   
    अलंकार--(१) विभावना-जिभ्या    "गाइ,जहाँ  ''होइ,पवन अबर 
                 '     धोइ ।
             (२) श्लेष पुष्ट रुपक--मोती ।
             (३) रुपकातिशयोत्त्कि--पवन, अम्बर, हसा, सुवटा ।
             (४) विरोधाभास--धरनि वरसै भीजै, चद सूरज मेलि,
             (५) जहाँ बिछट्यौ "  लाग्यौ ।
    विशेष--(१) रुपको तथा प्रतीको का प्रयोग है ।
     (२) कुण्डलिनी शक्त्ति पृथ्वी से उदभूत होती है । इसी से उसको 'धरती' कहते हैं ।
     (३) इस पद मे 'उलटवासी' की पद्धति अपनाई गई है ।
     (४) काया योग की सिद्धियो का वर्णन है ।
     (५) जहाँ "  ' लाग्यौ-अद्वैतावस्था की ओर सकेत है ।
     (६) निर्विकल्प समाधि का वर्णन है । हसी को भूमा का सुख भी कहा गया है ।
     (७) कनक कलस--विश्व-चेतना की अवस्था की अनुभूति को ही अरविन्द ने 'स्वर्ण-बर्षा' कहा है ।
     (८) पच सुवटा आई बैठे--इन्द्रियों का अन्तर्मुखी होना ज्ञान-प्राप्ति दशा का महत्त्वपूर्ण लक्षण है- 
      हौं अपनापौ तब खानिहौं, जय मन फिरि परि है ।

तथा--- सन्मुख होइ जीव मोहिं जवहीं । जन्म कोटि अध नासहिं तबहीं ।

                                             - गोस्वामी तुलसीदास 
     (९) कुण्डलिनी--देखें टिप्पणी पद २१६ ।
     (१०) विश्ववृक्ष--देखें टिप्पणी पद ११,१६४ ।
     (११) जहाँ बिछडयौ--देखें टिप्पणी पद २६ ।
     (१२) शुन्य--देखें टिप्प्णी पद १६४ ।