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[कबीर
 

हो)। हे स्वामी, हमारी विनती सुन लीजिए तथा अब अधिक अनसुनी मत कीजिए। हे भगवान! आप तो धैर्य-स्वरूप है परन्तु मैं आतुर हू--दर्शन करने के लिए उतावली हो रही हूँ । मेरे प्राण इस शरीर के बाहर चाहे जब निकल सकते हैं जिस प्रकार कच्चा घड़ा चाहे जब फूट सकता है और उसमे भरा पानी बाहर निकल सकता है। हे माधव,तुम मुझसे बहुत दिनो के बिछड़े हुए हो,अर्थात मे तुमसे अनेक जन्मो पूर्व बिछुडो थी। अब मेरा मन अधिक धैर्य धारण नही कर सकता है। कबीरदास की जीवात्मा कहती है कि मैं बहुत ही दुःखी हूँ। आप शरीर मे प्राण रहते हुए मुझसे मिलने की कृपा करे-अर्थात इस जीवन मे ही मेरा उद्धार करने की कृपा करे।

अलंकार-(।)गूढोक्ति हो तोहि।

(॥)रूपक-विचार अगिन।

(॥।)उपमा काचे भाडै नीर।

विशेष-(।)भगवत्प्रेम का बिम्व-विधायक एव मर्म स्पर्शी वर्णन है।

(॥)इसमे सूफी शैली की दाम्पत्य प्रेम परक विरह-व्यथा की तीव्रता की सफल अभिव्यक्ति हुई है।

(।।।)मिलन की आतुरता कबीर ने कई स्थानो पर व्यजित की है।'कबीर' शरीर रहते ही भगवान के दर्शन की इच्छा करते हैं। इसका अर्थ है कि वह मोक्ष की इच्छा न करके जीवन मुक्त होना चाहते।यह आकांक्षा सगुण भक्तो जैसी है।

(३०६)

वै दिन कब आयेगे माइ।
जा कारनि हम देह धरी है,मिलिवो अंगि लगाइ॥टेक॥
हौ जानू जे हिल मिलि खेलू,तन मन प्रांन समाइ।
या कांमनां करौ परपूरन ,समरथ हो राँम राइ॥
मांहि उदासी साधो चाहै चिपबत रैनि बिहाइ।
सेज हमारी स्यध भई है,जब सोऊ तब खाइ॥
यह अरदास दास की सुनिये,तन की तपनि बुझाइ।
कहै कबीर मिले जे साई मिलि करि मगल गाइ॥

शब्दार्थ-स्यध=सिह्ं,वाध।अरदासि=अर्जी,प्रार्थना।

सन्दर्भ-कबीर की प्रभु-मिलन की आएगा का वर्णन करते है। भावार्थ-रो सखि!वह दिन कब आएगा जब मैं इस शरीर धारण करने के उद्देश्य को पूरा कर सकुँगी?जिस भगवान की प्राप्ति के लिए यह मानव शरीर मिला है,उससे अग से अग मिलकर कब मिलन हो सकेगा?मेरे मन की यह तीव्र आकांक्षा है कि मैं अपने पति भगवान के साथ हिल-मिल कर खेलू और अपने तन,मन प्राण को पति रूप परमेश्वर में समाहित कर दूं । हे स्वामी राम!आप मन तरह समर्थ हो। मोरी मनोकामना को पूर्ण कर दो।मैं इतने दिनो तक