पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७ ७ ६ ] [ कबीर

     विशेष--- (1) इस पद में साम्प्रदायिक भावना के ऊपर करारी चोट है ।
    (11) कबीर का कहना है कि सभी सम्प्रदायों से भेद-बुद्धि है । अत: ये

अपने ईश्वर को एक विशेष रूप से सीमित करके देखते हैं 1 _

     (111) विभिन्न शब्दों के व्यायुत्पत्तिपरक अर्थ देकर मूल धर्म-भावना के

उदूरोघन का प्रयास है ।

                                   ( ३३१ )

आऊँगा न जाऊँगा, मरूगा न जीऊँगा 1

    गुरु के सबद मैं रमि रमि रहूँगा ।1टेका।

आप कटोरा आपे थारी, आपै पुरिखा आपै… नारी ॥ आप सदाफल आपै नींबू, आपै मुसलमांन आप हिंदू ॥ आपै मछ कछ आपै जाल, आपै झीवर आपै काल ॥ कहै कबीर हम नांहीं रे नाही, नां हम जीवत न तबले र्माहीं ॥

      शब्दरर्थ --मुवृले= मरे हुए । सदाफल =नारियल । 
     सन्दर्भ - कबीरदास जीवन के मिध्यात्व दूारा एक परम तत्त्व की सत्ता का

प्रतिपादन करते हैं ।

     भावार्थ-शुद्ध चैतन्य का प्रतिनिधित्व करते हुए कबीर कहते हैं कि मैं, न

जन्म लूँगा, न मरूँगा और न यह सामान्य जीवन ही व्यतीत करूँगा । मैं गुरु के उपदेश दूारा प्रतिपादित परम तत्व (राय) म॓ ही रमता रहूँगा । आत्मा तत्व को सव कुछ बताते हुए वह कहते हैं कि वहीं थाली है और वहीं कटोरा है । वह स्वय ही पुरुष है, और वहीं नारी है । वहीं सदैव पालने वाला नारियल है, वही नीवू हैं, वही मुसलमान है और वहीं हिन्दू है । वही मछली है, वहीं कछुआ है । वही उनको फँसाने वाला जाल है, वहीं उस जाल को फैलाने वाला महुआ है तथा वही उनको मारने वाला काल है । कबीरदास कहते हैं कि हमारा कोई किसी प्रकार का अस्तित्व नही है । हम न जीवित कहे जा सकते हैं और न मरे हुए ही कहे जा सकते हैं ।

अलंकार--") पद मैत्री-आडगा-जीऊँगा । मछ कछ । ३

          (11) पुनरुक्तिवदाभास----जाल'गा मरू'गा 1
          (णि) उल्लेख-अक ही तत्व का विभिन्न रूपों में वर्णन होने के

कारण । '

           (श्या) पुनरुक्ति प्रकाश----. रे नाही,

र्रश्वशेष-(स्तू समस्त दृश्यमान जगत (रूपात्मक जगत) के भूल में एक ही तत्व की सत्ता बताकर 'अद्देत वाद' का प्रतिपादन है । (11) आऊँगा-रहूँगा-शुद्ध चैतन्य सर्वध्यापी एव सदा रहने वाला तत्व है । अत उसका न आने का प्रशन हैं और न जाने का, न जन्म का और न मरण का है जड माया चैतन्य में विना गतिशील नही हो सकती है । जड में गति, और