पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४८२

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अलंकार - (१) पुनरुक्ति प्रकाश - प्रथम पक्ति । उठि उठि ।

       (२) रूपकातिशयोक्ति चोट ।
       (३) रूपक - ररा षाग रे ।
       (४) गूढोक्ति - क्या गृह रे ।

विशेष - (१) ररा रे - राम-नाम की महिमा का प्रतिपादन है।

      (२) अजराईल मारै - इस्लामी संस्कारो का प्रभाव है ।
      (३) देह सुहाग रे - रहस्यवाद का प्रभाव है ।
      (४) समभाव के लिए देखे-

(क) जतन बिनु मिरगनि खेत उजारे ।

 अपने अपने रस के लोभी, करवत न्यारे न्यारे ।

वुघि मेरी किरषी, गुरु मेरी बित्भुका अक्खिर दोइ रखवारे ।

एव्ं तोरी गठरी में लागे चोर, बटोहिवा कारे सोवै । पाँच-पचीस तीन है चोखा,यह सब कौन्हा सोर । - कबीरदास

(ख) श्ंकराचार्य ने भी इन मानवीय दुष्प्रवृत्तियो को डाकू कहा है, जो ज्ञान रूपी रत्न को लूटती रहती है -

काम क्रोघश्च लोभश्च, देहे तिष्ठान्ति तस्करा ज्ञान रत्नापहाराय तस्याज्जागृत, जागृत

(ग) मै केहि कहौं विपति अति भारी । श्री रघुवीर घीर हितकारी ।

    मम हृदय भवन प्रभु तोरा । तहै बसे आइ बहु चोरा ।
    तम,मोह,लोभ, अहकारा । मद,क्रोध बोध-रिपु मारा ।  
    अति करहि उपद्रव नाथा । मरदहि मोहि जानि अनाथा ।
    मैं एक अमिट बटपारा । कोऊ सुनै न मोर पुकारा ।

कह तुलसीदास सुनु रामा । लूटहि तसकर तब घामा ।

                  ( गोस्वामी तुलसीदास विनयपत्रिका)

जागहु रे नर सोवहु कहा, जागि चेति कछू करौ उपाइ, मोटा बैरी है जमराइ ॥ सेत काग आये बन मांहि, अजहू रे नर चेतै नांहि ॥ कहै कबीर तबै नर जागै, जम का डड मूड मै लागै ॥