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ग्रन्थावली] [ ८०२

की जाती है। इन्हे छ्छिहारी वहने का कारण यह है कि कायायोग मे तत्वरुप महारस की प्राप्ति नही हो पाती है। वह चैतन्य के साक्षात्कार का विपय है, परन्तु इतना रस तो मिल ही जाता है, जितनी स्निग्वता मठे मे होती है। अभिप्रेत यह है कि इस महारस के स्पर्श से तीनो नाडियाँ स्निग्ध एव पातिल साधना रस से आप्लावित अवश्य हो जाती हैं।

  (V) इस पद मे ज्ञान एव भक्ति के महारस की प्राप्ति का वर्णन है। इस महारस की साधना मे कायायोग की सिध्दि तथा तृप्ति भी स्वयमेव हो ही जाती है। इसके साथ ही भक्ति का पर्यवसान अद्वैतावस्था अभेद बुध्दि मे होता है। यह मटकी फूटी ज्योति समानी कथन द्वारा प्रकट है। 
  (VI)इसमे ज्ञान और भक्ति की अभिन्नता प्रकट है। 
  (VII)कबीर ने आत्मा को गूजरी इसलिए कहा है कि अहीर और गूजर जाति का मुख्य व्यवसाय गाय-भैस पालकर दूध-घी का व्यापार करना है।
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आसण पवन कियै दिढ रहु रे,

            सन का मैल छाडि दै बौरै ॥टेक॥ 
  क्या सींगी मुद्रा चमकांये, क्या विभूति सब अगि लगायें ॥ 
  सो हिंदू सो मुसलमांन, जिसका दुरस रहै ईमांन ॥ 
  सो ब्रह्मा जो कथै ब्रह्म गियांन काजी सो जांनै रहिमांन ॥
  कहै कबीर कछू आंन न कीजै रांम नांम जपि लाहा लीजै ॥
  शब्दर्थ - आसन = योग के अष्टाग साधनो मे एक। पवन = प्राणायाम दिढ= दृढ । वौरे = वाबले । सोगी = श्रृगी, योगियो द्वारा धारण किया जाने वाला उपकरण विशेष । मुद्रा = योगियो का एक आभुषण । दुरषद = दुरुस्त , ठीक , दृढ ।काजी = मुसलमान न्यायाधीश जो शरा के अनुसार मामलो का निर्णय करे । रहिमान = दयालु प्रभु । आन = अन्य साधना । लाहा = लाभ, जीवन का लाभ। 
  सदर्भ -- कबीर राम नाम की महिमा का प्रतिपादन करते है।
  भावार्थ -- हे पागल जीव , पवन रूपी आसन पर दृढतापूर्वक स्थित रहो अर्थात् तू समाधिस्थ होकर प्राणायाम की हढ साधना करो और मन का कलुप दूर करलो। सोगी, मुद्रा आदि वाहरी उपकारणो के सजाने से तथा अगो(शरीर) पर भस्म लगाने से क्या होता है? सच्चा हिन्दू और सच्चा मुसलमान वही है, जिसका ईमान ठीक ठिकाने बना रहता है अर्थात जो प्रलोभनो द्वारा विचलित नही होता है। वही ब्रह्मण है जो ब्रह्मज्ञान की बात करता है। वही काजी(धर्म और न्याय का ज्ञाता) वही है जो भगवान के दयालु स्वरुप को पहचानता है अर्थात् जो प्रत्येक मामले मे सहानुभूतिपूर्वक विचार करता है। कबीर कहते है कि और कुछ भि मत करो, केवल राम नाम की जप करके जीवन का लाभ प्राप्त करो अर्थात् जीवन को सार्थक बनाओ।