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उद्भभावना है । उनकी कल्पनाशक्ति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमे व्यावहारिकता तथा कलात्मकता का सुन्दर सभन्वय है।सन्तो ने भाव या वणर्य विषय को ही काव्य की आत्मा या सब कुछ मानकर वाह्यावरण एवं कलात्मक उपकरणों को जुटाने का प्रयास नही किया है। उन्होने भावो की अभिव्यक्ति के लिए जिन-जिन उपकरणों को स्वीकार किया है वे सब अत्यन्त स्वाभाविक एवं सहज हैं । कबीर एवं अन्य सन्तो ने कल्पना को काव्य मे इस लिए स्थान दिया कि उनका वण्यंविषय अविकाधिक प्रभावशाली, स्पष्ट तथा चमत्कारपूर्ण बन सके! अब यहाँ पर कबीर की कविता से कल्पना के सम्बन्ध मे कुछ उद्भरण देंगे :

( १ )

गुरु तुम्हारा शिष कुम्भ है गढ़ि-गढ़ि काढै खोट ।
अंतर हाथ सहार दे बाहर बाहै चोट ॥

( २ )

मन ताजी चेतन चढ़ै लहौकी करै लगाम ।
सबद गुरु का ताजाना कोई पहुँचे साधु सुजाना ॥

( ३ )

हरिहै खांड रेत महि बिखरी हाथी चुनि ना जाय ।
कहि कबीर गुरु भली बुझाई किटी होई के खाय॥

( ४ )

हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी केस जरै ज्यों घास ।
सबका जरता देखिकर भये कबीर उदास ॥

( ५ )

पिया ऊँची रे अटरिया तोरी देखन चली!
ऊँची अटरिया जरदकिनरिया, लागी नाम कि डोरी ।
चाँद सुरज सम दियना वस्तु है ता भिचु भुल डगरीया।
आठ मर्रातिव द्स दरवाजा नौ में लागी किवरिया ।
खिरकी वेंठ गोरी चितवन लागी,उपरा झांपप झोपड़िया||

इन पाँच उद्भरणों की तेरह पंक्तियों मे कबीर की कल्पनाशक्ति, उस कल्पानाशति को विविघसा और शक्तिमता सरलता के साथ मूल्यांकन किया जा साकता है। सतगुरु को अंग माया को अंग, चेतावनी को अंग आदि प्रसंगो मे कवि कल्पनाशक्ति का वैभव दशंतीय है । शब्द, साखी और पदो में समान रुप मे कबीर की।