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ग्रन्थवली]
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भावार्थ---लोगो की बुद्धि भोली है-वे सहज ही हरेक वात पर विश्वास कर लेते है।कबिर कहते है कि यदि काशी मे शरीर छोड्ने पर मोक्ष् की प्रप्ति हो जाये, तो फिर मोक्श के लिये राम से क्यो करे।पहले हम भी अंधवश्वासो मे फसे हुये थे,परन्तु अब उन्से मुक्त होकर हम प्रकार् की विवेक पूणं बाते करने लोग है।अन्ध विश्वास से मुक्त होकर सच्ची इश्वर-भक्ति के प्रति उन्मुख हो जाना ही इस मानव-जीवन की सार्थकता है।जैसे जब एक बार जल मे प्रविश्ट हो जाने पर फिर बाहर अलग नहि निकाला जा सकता है--वह उसके साथ एक रस हो जाता है, उसी प्रकार यह जुलाहा कबीर भक्ति से द्रवित होकर ब्रह्म के साथ एकाकार हो गया। राम भक्ति मे जिसका प्रेम है और राम-चरणो मे जिसका चित लगा हुआ है, उसके लिए इस प्रकार की अद्वतावस्त की प्राप्ति कोई आशचर्य की बात नही है। गुरु की कृपा और साधु संगती के प्रभाव से निम्न जाति जुलाहा मे उत्पन्न यह कबीर जीवन-मुकत हो रहा है। कबीर कहते है कि हे सतो,सुनो। कोई भी किसी प्रकार के भ्रम मे न रहो। अगर भगवान के प्रति सत्य निष्ठा है, तो अवश्य मोक्ष की प्राप्ति होगी। फिर चाहे काशी मे शरीरात हो, चाहे मगहर मे।

अलंकार--(i)पर्यायोक्ति-जो कासी*****निहोरा। (ii)उदाहरण-ज्यु जुलाहा।

(iii)वऱोत्तू-ताकी अचिरज काहा?

(iv)अनुप्रास-जग जीत जाइ जुलाहा ।

(v)व्यतिरेक की व्यजना-जग जात जाइ जुलाहा।


विशेष-(i)अध विश्वास का खण्डन है।

(ii)कबीर के 'मगहर' वास वाली बात की पुष्टि होती है।

(iii)'जुलाहा' शब्द मे सवर्ण जाती पर कताक्ष है। नीच जाति मे जन्म लेकर भी कबीर ने मोक्ष प्राप्त कर्ली और बडे-बडे धर्म व्वज रह गये। ठीक कही है-

जाति पांति पूछे ना कोई। हरि को भजं सो हरि को होई। तथा- भगतिवंत अति नोचउ प्रानी। हरि की भजं सो हरि को होई।

(४०३)

ऐसी आरती ऋभुवन तारे,

तेज पुंज तहा प्रान उतारे ॥टेक॥

पाती पंच पहुप करी पूजा, देव निरजन और न टूजा।

तनमन सीस समरपन कीन्हं,प्रगट जोति तहा देव प्रनत। दीपक ग्यांन सबद धुनि घटा,पर पुरिख तहा देव प्रनता। परम प्रकार सकल उजियारा,कहै कबीर मै दास युम्हारा॥