पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६०७

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२६६ ] [ कबीर को साखी भावार्थ-जो व्यक्ति भगवान के प्रेम-पाश मे फंस जाते हैं उनके ऊपर सातो डोरी वाले सीग के धनुष पर चलाये वाण का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। क्योकि ईश्वर प्रेम की चोट लगती तो शरीर मे है किन्तु उसकी वेदना हृदय मे होती है। विशेष--वारण जहाँ लगता है वही पीडा पहुंचाता है किन्तु प्रेम-वाण की चोट शरीर मे लगती है और वेदना हृदय मे होती है । अतः असंगति अलकार है। शब्दार्थ-हरि-सर = ईश्वर के वाण । सत गुण = सात डोरी । सीगणि = सीग से निर्मित धनुप। ज्यू' ज्यू हरि गुण सां भल, त्यूत्यू लागै तीर । सांठी सांठी झड़ि पढ़ी, झलका रह्या सरीर ॥६॥ संदर्भ-प्रभु-गुण स्मरण जितना ही अधिक किया जाता है उसका प्रभाव भी उतना ही अधिक हृदय मे बैठना है। भावार्थ-ज्यो ज्यो ईश्वर की गुण रूपी डोरी को संभालता हूँ अर्थात जितना ही अधिक प्रभु के गुणो का स्मरण करता हैं त्यो त्यो प्रेम का तीर अधिक गम्भीर लगता है क्योकि धनुष की प्रत्यचा को जितना ही अधिक खोचा जाता है वारण उतना ही अधिक गहरा लगता है। और जिस प्रकार वाण को लकड़ी ता बाहर रह जाती है किन्तु उसकी नोक शरीर के अन्दर प्रविष्ट हो जाती है उसा प्रकार मेरे मुख से कही वाणी मे जो सार तत्व था वह हृदय मे प्रविष्ट हो गया और निरर्थक बातें बाहर ही टूटकर गिर गई । विशेष—'गुण' शब्द मे श्लेष है जिसके दो अर्थ हैं भगवान के गुणानुवाद और रस्सी या धनुष की डोरी । शब्दार्थ-गुण = अच्छापन, डोरी । भलका = वाण का अग्रभाग । साठीलकडी । साभलू = सम्हलता हूँ, स्मरण करता हूँ। ज्यू ज्यू हरिगुण सांभलौं, त्यू' त्य लागै तीर। लागे थें भागा नहीं, साहणहार कबीर ॥७॥ संदर्भ--प्रभु-गुण स्मरण की प्रेम-वेदना से बिचलित होकर जो साधक ईशविरह वेदना को सहन कर लेते हैं उन्हे कबीरदास जी अपने समान भक्त बताते है । भावाथ-जैसे-जैसे प्रभु के गुणो का स्मरण करता है वैसे ही वैसे तीर भी अधिक गहरा लगता है। कबीर कहते हैं कि ईश्वर प्रेम के तीर के लग जाने पर म ईश्वर के सम्मुख से भागा नही वरन् उसको धैर्यपूर्वक सहन करता रहा या जिसन प्रेम के तीर रूपी ईश-विरह-वेदना को सहन कर लिया वह कबीरदास के समान भक्त बन जाता है।