पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६०८

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सेह मन समझि समथ सरणांगता, जाकी आधि मधि कोइ न पाव्ं। कोटि कारिज सरे देह गुण्ं सबजरै, नैक जो नाव्ं पतिक्षत आवै॥ टेक ॥ आकार की ओट आकार नही ऊवरै, सिब विरंचि अरु बिशणु ताई। जास का सेवक तास को पाइहै,इष्ट को छांडि आगे न जाहीं॥ सनेक जुग वदिगी बीबिध प्रकार की, आति गुना का गुंणहों समाहो॥ पाच्ं तत तीनिगुण जुगतिकरि सांनियां, अष्ट्बिन होत नही कर्म काया। पाप पुन वोज अंकुर जमै ,उपजि विनसे सर्च्व माया॥ सन्दर्भ-- कबीरदास राम नाम की महिमा का प्रतिपादन कर्ते है। भावाथ्ं-- रे मन , तु इस समय भगवान की शरण मे जाकर सेवा कर जिसका ,आदि अत और मध्य कोई नही पा सकता है।पातित्रत धर्म के समान चुरी निष्ठा के साथ उसका नाम भजने से तुमहारे करोसदो