पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२९६ ] [ कबीर की साखी

  शब्दार्थ--ऊग्या = उदित हुआ । आथवै = अस्त होता है । चिरिगयां =

चुना गया ।

       जो पहरया सो फ़ाटिसी, नांव धरया सो जाइ ।
       कबीर सोई तत्त गहि, जौं गुर दिया बताइ ||१२||
   सन्दर्भ--संसार की नश्व्रता पर दुख प्रकट करते हुए कबीरदास जी प्रभु-

भक्ति करने की सलाह देते हैं ।

   भावार्थ- जो नया वस्त्र शरीर पर धारण किया जाता है वह कभी न कभी

अवश्य फटता है । जिस नाम को जीव ने इस संसार मे रखा है वह नाम भी उसकी मृत्यु के बाद वीरे-धीरे समाप्त हो जायगा | इसलिए कबीर दास जी कहते हैं कि जिस तत्व की सदगुरु ने बता दिया है उसी तत्व को ग्रहण करना चाहिए ।

    शब्दार्थ--तत्त = तत्व ।
        निधड़क बैठा रांम बिन, चेतनि करै पुकार |
        यहु तन जल का बुदबुदा, बिनसत नाहीं बार ।।१३।।
 संदर्भ--मनुष्य का शरीर पानी के बुदबुदे के समान नश्वर है अत: मनुष्यो

को प्रभु भक्ति करनी चाहिए |

    भावार्थ---जीवात्मा को अज्ञानावस्था में पड़ा हुआ देखकर चैतन्य अर्थातू

ज्ञानी उससे पुकार कर कहता है कि प्रभू-भक्ति के बिना तू निधडक क्यों बैठा है । यह शरीर पानी के बुदबुदे के समान है जिसको नष्ट होने में देर नहीं लगती । इस- लिए तू प्रभू भक्ति कर ।

   शब्दार्थ--विनसत = नष्ट होते हुए | वार = विलम्ब ।
          पांगी केरा बुदबुदा इसी हमारी जाति |
          एक दिनां छिप जांहिंगे तारा ज्यूँ परभाति ।।१४।।
    सन्दर्भ -- जीव की नश्वरता का सकेत है ।

भावार्थ--कबीरदास जी कहते है कि हम मनुष्यो की जाति पानी के बुद- बुदो के समान ही क्षण भंगुर होने वाली है । तारे रात्रि भर आकाश मे छिटके रहते हैं और प्रभात होते ही अदृश्य हो जाते है उसी प्रकार मनुष्य भी कुछ दिन ससार मे रह कर यहाँ से चला जायगा ।

     शब्दार्य-पांणी==पानी । परभाति==प्रभात ।
     विशेष-उदाहरण अलंकार |
             कबीर यहु कुछ नहीं, पिन पारा पिन मीठ ।
             काल्हि जु बैठा मांडियाँ, आज मसाणां दीठ ||१५||