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३००] [कबीर की साखी

         वरियां बीती बल गया , श्ररु बुरा कमाया ।
         हरि जिनि छाडै हाथ थै, दिन नेडा श्राया ॥२६॥
   सन्दर्भ - यदि जीवन भर प्रभु भक्ति न हो सके तो अनिम समय मे तो 

अवश्य ही भक्ति कर लेनी चाहिए।

  भावार्थ - इस जीवन का समय नषट हो गया शक्ति क्षीण हो गया किन्तु 

अब तक बुरे कर्म ही किए गए अच्छे कार्य नहीं हो सके हैं। अब जीवन क समय निकट आ गया है अब भगवान को अपने हाथ से मान जाने दो ।

  शब्दार्थ - दिन नेडा आया = मृत्यु निकट आ गई ।
       कबीर हरि सूॅ हेत करि, कूडै चित्त न लाव ।
       बांध्या बार खटीक कै, ता पसु किनी एक श्राव ॥२७॥
   सन्दर्भ - जीवन में प्रभु से प्रेम कर बुरी भावनाओ का परिव्याग करना 

चाहिए।

   भावार्थ - कबीरदास जी कहते है कि ऐ संसारी मनुष्यो ! तुम प्रभु(इश्वर)

से ही अपना प्रेम का नाता जोडो और बुरी भावानाओंं को अपने चिता में भी न आने दो । जिस प्रकार खटिक (वघिक) के दरवाज़े पर बंधे पशु की आयु का कोई भरोसा नही कि वह किसी भी समय काटा जा सकता है उसी प्रकार तुम्हारा भी कोई भरोसा नही है काल पता नही कब तुझे चट कर जाय।

 शब्दार्थ - हेत = प्रेम । कूङै = सांसारिक विषय वासनाएं । आव = आयु ।
       विष के बन मैं घर किया, सरप रहे लपटाइ ।
       ताथै जियरै डर गहा, जागत रैणि बिहाइ ॥२८॥
  सन्दर्भ - जीवात्मा नाना प्राकार को दुर्वासनाओ से लिप्त रहता है और 

भय के काराया अहनिश जागता रहता है।

     भावार्थ - इस जीवात्मा का निवास इस संसार मे उसी प्रकार है जिस
प्रकार विष-वन में उसका घर बना हो और उसमें सासारिक दुर्वासनाओ के सपं 

चारो अोर लिपटे रहते हैं अर्थात जीवात्मा मे मोह, मत्स्रर, लोभ आदि व्याप्त रहते हैं। इसलिए जीवात्मा इनसे भयभं त होकर अग्यान की रात को जाग करके ही व्य्तीत करता है।

       कबीर सब सुख राम है, और दुखों की रासि ।
       सुर नर मुनिवर श्रलुर सब, पङे काल को पासि ॥२९॥
  सन्दर्भ - ईश्वर का नाम सम्रग के बिना इस स्ंसार में सभी कुछ 

निस्सार है।