पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/७९६

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आपको इस आरे के नीचे कटवा देती थी क्योकि उन्हें विश्वास था कि इस प्रकार वे स्वर्ग प्राप्ति के अधिकारी बनते थे |यह 'काशी करवट' कहलाती थी |

  आरा चलाने के कार्य नीचे ही नीचे गुप्त रुप से इस प्रकार होता था कि वह स्वचालित सा लगता था | इसका रहस्य खुलने पर अग्रेजो ने इसको बन्द करा दिया |
                     (३४६)
     क्या हाँ तेरे न्हाई धाई ,
         आतम रांम न चीन्हां सोई||टेक||
     क्या घट ऊपरि मंजन कीयै,भीतरी मैलि अपारा |
     रांम नांम बिन नरक न धूटै,जे धौवै सौ बारा ||
     का नट भेष भगवां बस्तर,भसम लगावै लोई ||
     ज्यू दादुर सुरसरी जल भीतरि,हरि बिन मुकति न होई||
     परहरि कांम रांम कहि बौरे सुनि सिख बंधू मोरी |
     हरि कौ नाँव अभौ पद दाता,कहै कबीरा कोरी ||
    शब्दार्थ--सोई== उसी । चिन्हा ==पहिचाना । नट==तमाशा करने वाला, नाटक का पात्र। भगवा बस्तर == गेरुआ वस्त्र । सिख==सीख,शिक्षा । कोरी==कोली , जुलाहा । अभै = अभय।
     सन्दर्भ- कबीर कहते है कि वाह्याचार का त्याग करके राम के नाम का स्मरण करना

चाहिए।

     भावार्थ- हे साघक, यदि तूने आत्माराम (आत्म-स्वरूप) को नही पहचाना है, तो तुम्हारे

नहाने-धोने आदि वह्याचार से क्या लाभ है ? जब अन्त करण मे विषय वासनाओ का अपार मल भरा हुआ है, तब ऊपर ऊपर से शरीर को स्नान कराने (धोकर साफ कराने) से क्या लाभ हो डाले,परन्तु राम-नाम के बिना नरक(पाप कमं के फल) से छुट्कारा नहीं हो सकता है। लोग गेरूआ वस्त्र धारण करते है और भस्म लगाते है,,परन्तु इस प्रकार नाटक की पात्र के तरह विभित्र व्ंश धारण करने से क्या लाभ हो सकता है? जैसे मेढक संदव गगा जल के भीतर रहते है, परन्तु केवलन गंगा जल मे ही रहने के कारण उनकी मोक्ष नहीं हो जाती है, इसी प्रकार केवल गगा स्नान करते हुए ही प्रभु के नाम स्मरण बिना मनुष्य की मुक्ति सम्भव नही है। हे भाई तुम मेरी शिक्षा मान लो, हे पागल! तू विषय बासना का त्याग करके राम-नाम कहो। जुलाहा कबीर का निश्चित मत है कि हरि का नाम-स्मरण अभय पद-परम पद-का देने वाला है।

     अलकार- (i) वकोक्ति- क्या है--पारा।
            (ii) निदशंना की व्यजना-राम नाम" " लोई।
            (iii) उपमा- ज्यू दादुर होई।