पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८१०

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(४)पाप-पुनि दरवाजे-वृत्तियाँ पाप-पुण्य रूप हैॱ,अतः उनके यॆ दो दरवाजे हैॱ। (५)क्रोध-प्रधान - "कामात् सजायते क्रोध",के अनुसार इच्छा की आपूर्ति क्रोध का हेतु हे।अधिकाश इच्छाऐ पूरी नही हो पाती है। इसी से क्रोध की प्रधानता कही है । (६)स्वाद सनाह - जीव इन्द्रियो के स्वाद द्वरा सदैव वशीभूत बना रहता है। फलस्वरूप आत्म-हित की बातो का उन पर कोई प्रभाव नही पडता है।उपदेश के तीर स्वाद के कवच को पार नही कर पाते है । (७)रोप-ममता - मानव का अह राग-द्वेष से इतना घिर जाता है कि उसके मस्तिष्क मे विवेक की बात प्रवेश ही नही कर पाती है । 'अह' व्यक्ति का शिरो भाग है। इसकी रक्षा 'ममत्व' करता है। इसी 'ममता' रूपी शिरस्त्राण कहा है। (८)एक चोढ ढहाया - स्वरूप-स्थिति के कारण देहाध्यास छूट जाता है। यह अध्यास ही शरीर की जड है । अध्यास का नष्ट होना ही शरीर रूपी किले का ढह जान है। (९)'नालिकर' के स्थान पर हवाई पाठान्तर है।डा० माताप्रसाद गुप्त ने 'हवाई' को ही ठीक माना है। उनका कहना है कि,नाले कबीर के मरणा-नातर बावर के साथ आई थी।'हवाई' गोलो को फेंकने का एक यन्त्र होता था,जिसका उल्लेख इतिहास मे नालो के प्रचलन के पूर्व पयाप्त मात्रा मे मिलता है।"

     सुरति-देखे टिप्पणी पद स० १६२ ।
                 (३६०)

रैनि गई माति दिन भी जाइ,

              भवर उड़े बग बैठे आइ ॥टेक।

कांचै करबै रहै न पानी,हंस उड़चा काया कुमिलांनीं॥ थरहर थरहर कपै जीव,नां जांनू का करिहै पीव॥ कऊआ उड़ात्रत मेरी बहियां विरांनीं,कहै कबीर मेरी कथा सिरानीं॥ शब्दार्थ-रैनि=रात्रि,युवावस्था।दिन=वृद्धावस्था ।वग=बगुला।करवै=मिट्टी का छोटा वतंन,करुआ। हस=बोघ।सिरोनी=समाप्त हुई। संदर्भ-कबीरदास जीवात्मा रूपी पत्नी की परमात्मा रूपी पति से मिलन से पूर्व की मन स्थिति का वर्णन कर रहे हैं।उनका वर्णन एक येसी नवोढ़ा के रूप मे किया गया है जो प्रथम समागम भय के कारण प्रिय-मिलन मे सकोच करती है। भावार्थ-योवन रूपी रात्रि तो पति के वास्तविक स्वरूप के अज्ञान मे व्यतीत हो गई।अब परिपदवावस्था रूपी बुढापा भी कही इसी प्रकार व्यतीत न हो गए।सुवावस्था रूपी रानि के प्रतीक काले बालो भारे तो उड गए हैं वो वृदावस्था दिन मे आगमन की सूचना देने वाले पर्वत केश रूपि बगुले