पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८१८

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२१४ ] [ कबीर माया मोह मद मैं पीया, मुगध कहै यह मेरी रे । दिवस चारि भले मन रजै, यह नाही किस केरी रे॥ सुर नर मुनि जन पीर अवलिया, मीरां पैदा कीन्हां रे। कोटिक भये कहां लू बरनू सबनि पयानां दीन्हां रे ॥ धरती पवन अकास जागा, चद जाइगा सूरा रे। हम नांहीं तुम्ह नांहीं रे भाई, रहे राम भरपूरा रे ॥ कुसलहि कुसल करतं जग खींना, पड़े काल भी पासी। कहै कबीर सबै जग बिनस्या, रहे रांम अबिनासी ।। शब्दार्थ- खेम=क्षेम । सही सलामत=पूर्ण सुख-सुविधा । दहू धा=दोनो समय । सुब=सव । मुगध = मूर्ख । अवलिया औलिया, पहुंचा हुआ मुसलमान फकीर, सिद्ध पुरुष । पीर= मुसलमानो का धर्म गुरु । मीरा=श्रेष्ठजन । पयानाप्रयाण । खीनाक्षीण हुआ है । पासी= फाँसी । विनस्या= नष्ट हो गया। सन्दर्भ-कबीर संसार की निस्सारता का वर्णन करते हैं। भावार्थ-कुशल-क्षेत्र और पूर्ण सुख-सुविधापर्वक रहना ये दोनो बातें एक साथ ससार मे किसी को प्राप्त नही होती हैं अर्थात् इस संसार मे आते समय आर जाते समय दोनो ही अवसरो पर हम लूटे जाते हैं और यहाँ हमारा समस्त तत्व हरण कर लिया जाता है अर्थात् इस जीवन मे हम अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप का सर्वथा भूल जाते हैं । यह जीव माया-मोह की शराब पिये रहता है और फिर वह मूर्ख यह कहता है कि यह सब सम्पत्ति मेरी है। मानव चार दिन के लिये भल हा अपना मन बहला ले, किन्तु यह माया (सांसारिक सम्पत्ति) किसी की नहीं है। देवता, मनुष्य, मुनि, भक्त, धर्मगुरु, सिद्ध महात्मा, श्रेष्ठजन आदि अनक प्रकार के व्यक्ति भगवान ने उत्पन्न किए हैं। इस प्रकार के करोडो पैदा हुए, उनका वर्णन कहाँ तक करू ? परन्तु सब के सब इस ससार से प्रस्थान कर गये । पृथ्वी, वायु, आकाश, सूर्य और चन्द्र सभी नष्ट हो जाएगे सभी नश्वर है। न हम रहा न तुम रहोगे और न हमारे भाई-बन्धु रहेगे। केवल एक राम ही रहेगे, वे हा सर्वत्र व्याप्त हैं । कुशलता का उपक्रम करता ही करता यह संसार नष्ट होता ह और मृत्यु के वन्धन मे पडता है । कबीर कहते हैं कि सारा जगत विनष्ट हो जाता है। (नाशवान है) केवल अविनाशी राम ही रह जाते हैं (केवल राम ही अविनाशी हैं)। अलंकार-(1) वक्रोक्ति-ए दोइ " रे । (u) वृत्यानुप्रास-माया मोह मद मुगध । (ii) रूपक-माया मोह मद, काल पासी। (iv) सभग पद यमक-कुसलहि कुसल । विशेष- (1) ससार की असारता के वर्णन द्वारा वैराग्य का प्रतिपादन है। (i) 'निर्वेद' संचारी की व्यंजना है।