पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८१९

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ग्रंथावली]

    (३)कुशल   दीन्हा रे। वैभव लेकर भी व्यक्ति कुशल- पूर्वक बना रहे- यह नही होने का । देखिए-
     दुइ कि होइ एक समय भुआला । हैसब ठठाइ फुलाइब गाला । 
     दानि कहाइब अरु कृपनाई । होइ कि खेम कुशल रौताई ।
                                                (गोस्वामी तुलसीदास)
     (४) दिवस    रे  कहावत प्रचलित है-"चार दिनो की चांदनी फेरि अधेरी रात।"
     (५) सबहि पयानां कीन्हा रे--समभाव की अभिव्यक्ति देखे--
      हाय दई! यह काल के स्थाल में फूल से मूलि सबै कुम्हलाने।
      देव-अदेव कली-बलहीन चले गये मोहि की हौंस हिलाने । 
      यो जग बीच बचे नहिं मीच पै, जे उपजे ते मही में मिलाने।
      रूप-कुरूप-गुनी-निगुनी जे जहाँ जनमे ते तहाँ ही बिलाने । (देव)
                    (३६७)
   मन बनजारा जागि न सोई,
              लाहे कारनि मूल न खोई ॥ टेक। 
  लाहा देखि कहा गरबांना, गरब न कीज मूरिख अयांनां॥
  जिन धन सच्चा सो पछितांनां, साथी चलि गये हम भी जांनां॥
  निसि अधियारी जागहु बदे, छिटकन लागे सबही संधे॥
  किसकी बंधू किसकी जोई, चल्या अकेला सगि न कोई॥ 
  ढरि गए मंदरी टूटे बंसा, सूके सरवर उढ़ि गये हंसा॥
  पंच पदारथ भरिहै खेहा, जरि बरि जायगी कंचन देहा॥
  कहत कबीर सुनहु रे लोई, रांमनांम बिन और न कोई॥
  शब्दाथ-- बनजारा = व्यापार करने वाला, बनिज,व्यापारी। लाहे= लाभ छिटकन= बिछुडना। सधे=सगी साथी। जोई=योगिता, स्त्री वसा= वंश। पंच पदारथ=पच महाभूत। खेहा=मिट्टी। लोई=लोगों अथवा कबीर की शिष्या पत्नी ।
  संदर्भ-- कबीरदास ससार की निस्सारता का प्रतिपादन करते हैं।
  भावार्थ-- रे मन रूपी व्यापारी, तू जग जा । सो मत । लाभ के फेर मे

तू अपनी गाँठ की पूँजी मत गँवावे। अभिप्रेत यहा है कि तुम अज्ञान वश सासारिक सुख-सुविधा को प्राप्त करने मे लगे हुए हो। ये सुख तो मिथ्या हैं और इनके चक्कर मे तुम अपने आत्मा के मूल तत्व आनन्द-स्वरूप को व्यर्थ ही नष्ट कर रहे हो। तुम वस्तु स्थिति को समभ्क कर इस चक्कर से निकल आओ। सांसारिक सुखो को प्राप्त करके तुम्हे क्यों अभिमान हो गया है? हे अज्ञानी मूर्ख तू इन सासारिक सुखो पर अभिमान मत करो । जिन लोगों ने धन का सचय किया, वे सब पछताए। हमारे सब साथी मृत्यु के ग्रास होकर इस ससार से चले गये हैं।