पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८२०

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[कबीर हमको भी एक दिन जाना ही है। हे मानव! यह जीवन अंधेरी रात्रि के समान है । तू जग जा। तेरी समस्त सगी साथी तुम से बिछुडने लगे हैं । इस जगत मे कौन किसका भाई है और कोन किसकी स्त्री है? जीव को अकेले ही जाना पडता है। कोइ किसी के साथ नही जाता है। सारे महल गिर कर नष्ट हो गये, इनमे रहने वाले परिवार समाप्त हो गये,तालाब सूख गये और उन पर रहने वाले हन्स भी उङ गये,सांसारिक वैभव का प्रतीक पच महाभूत (पृथ्वी,जल,तेज,वायु और प्रकाश) से निर्मित यह शरीर मिट्टी से मिल जाता है और सोने की भी देह जल कर भस्म हो जाती है। कबीर केहते हैं की रे लोगो , सुनलो । राम-नाम के अतिरिक्त यहाँ अन्य कोइ सहारा नही है।

         अलंकार- (१)रूपक - मन बनजारा।
                (२)गूढोत्ति- कहा गरबाना।
                (३) निदर्शना की व्यजना-निसि सघे।
                (४) वकोक्ति-किसका॥।जोई।
           विशेष - (१) लक्षणा-पच पदारथ।
                  (२)जीवन और जगत की असारता का प्रतिपादन है।
                  (३)'निर्वेद' संचारी की व्यजन है।
               (३६८)
             मन पतंग चेते नहीं जल अंजुरी समांन ।
              बिषिया लागि विगूचिये,दाझिये निदांन । टेका।
              काहे नैन अनदियै,सूझत नहीं आगि।
              जनम अमोलिक खोइयै ,सांपनि संगि लागि ॥
              कहै कबीर चित चंचला,गुर गांन कहौ समझाइ।
             भगति हीन न जरई जरै , भावै तहां जाइ॥

शब्दार्थ- अंजुरी=अजुली। विगूचिक=बर्बाद करता है। दाझिये=जल जाएगा । निदान=अन्ततः।

  संदर्भ- कबीर माया ग्रस्त जीव को सावधान करते हैं। 

भावार्थ-यह मन रूपी पतंगा चेतता नहीं है और माया रूपी दीपक पर प्राण देता है। वह इस बात को नही समझता है कि जीवन अंजलि -वध्द जल के समान क्षणिक अस्तित्व वाला है।यह मन विपियो मे आसक्त होकर नष्ट हो रहा है। अन्त्तत इसको जलाना ही है। तू संसार की चीजो को नेत्रो से देख कर क्यो आनन्दित होता है? तुमको वासनाग्नि ( देखने की आसक्ति मे निहित सताप) -क्यो नही दिखायी देती है? वासना-रूपी सापिन के साथ लगा कर तूने अपने बहु-मूल्य जीवन को व्यर्थ ही बर्बाद कर दिया । कबीर केह्ते हैं कि यह चित तो बिजली के समान चचल है।यह बात मुझको गुरु ने समझाकर बताई है। भक्तिहीन तो निशचय ही संसार मे विपयाग्नि मे जलता है,क्योकि वह सोचे विचारे विपयो