पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८२१

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ग्रंथावली

   के वशीभूत होकर चाहे जहाँ चला जााता है वह गम्य अगम्य प्रत्येक स्थल पर चला 
    जाता है।
     अलंकार - (१) रूपक --- मन पतग, चित चचला।
               (२) उपमा ----- जल अजुरी समान,
               (३) रूपकातिशयोक्ति-- आगि, सापनि ।
   विशेष --- निर्वेद सचारी की व्यजना ।
               (३६६ )
  सवादि पतंग जरै जर  जाइ, 
           अनहद सौं मेरौ चित न रहाइ।।टेक।।
  माया कै मदि चेति न देख्या, दुबिध्या मांहि एक नहीं पेख्यां ।।
  भेष अनेक किया बहु कींहा, अकल पुरिष एक नहीं चीनहां ।।
  केते एक मूये मरहिगे केते, केतेक मुगध अजहु नहीं चेते ।।
  तंत मंत सब ऒषद माया, केवल राम कबीर दिढाया ।।
     

शबदार्थ-- मदि=मद,नशा। पेख्या=देखा। अकल=अखडित। मुगध=मूखं। दिढाया=ह्ढ किया।

सनदर्भ-- कबीर का कहना है कि अज्ञान के वशीभूत जीव विषयासक्ति मे नष्ट हो रहा हैं।

भावार्थ -- विषयासत्क मेरा मन रूपि पतंग अनवरत रूप से विषयाग्नि मे जलता है। अनहद नाद मे मेरा चित नही लगता हैं-- अर्थात् मेरा मन विषयो से पराड्मुख होकर अनतमुखी नही होता है। माया के मद से छुटकारा पाकर मैंने असली तत्व को नही समझ् पाया है। ज्ञान जनित द्विविधा एव द्वेत भावना मे पड कर मैं सवैव्यापी एक (परम) तत्व का साक्षात्कार नही कर पाया । मैनें विषयासक्ति के वशीभूत होने के फलस्वरुप् अनेकानेक जनम धारण किए, परन्तु मैं उस एक अखण्ड अविनाशी परमपुरुष परमात्मा को नही देख पाया। इस संसार चक्र मे कितने ही मर गये और न मालूम कितने और मरेंगे, इतना सब कुछ देख कर भी कितने ही मूृृर्ख् अब भी होश मे नही आ रहे हैं। तत्र-मंत्र औषधि आदि सभी माया ( घोखा अथवा नशवर) हैं। इसी से मैंने अपने उद्धार के लिए अपना मत केवल राम की भक्ति मे ह्ढता पूर्वंक लगा दिया है।

   अलंकार --- (१)रूपक-- सवादि पतंग।
             (२)वृतयानुप्रास-- जरै जरि जाइ,।
             (३)गूढौक्ति-- मरहिगे केते।

विशेष-- (११) अनहद देखें टिप्पणी पद स० १६४।

      (११) विषयो से विरक्त होने से ही कलयाण सम्भव है ।