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८१८] [ कबीर

                   (३७०)
     एक सुहागनि जगत पियारी,
          सकल जीव जंत की नारी ॥टेक॥
  खसम मरै वा नारि न रोवै, उस रखवाला औरै होवै॥
  रखवाले का होइ विनास, उतहि नरक इक भोग विलास॥
  सुहागनि गलि सोहै हार,सतनि विख बिलसै संसार॥
  पीछै लागी फिरै पचिहारी ,संत की ठठकी फिरै बिचारी॥
  संत भजै वा पाछी पड़ै,गुर के सबदं मारयौ डरै॥
  साषत कै यहु प्यंड परांइनि, हमारी द्रिष्टि परै जैसै डांइनि॥
  अब हम इसका पाया  भेद, होइ कृपाल मिले गुरदेव॥
  कहै  कबीर इब बाहरि परी, ससारी कै अचल  टिरी॥
  शब्दार्थ-सुहागनि नारी=माया रूपी सुन्दरी नारी। खसम=पति ।
बिलसै=भोगता है । पचिहारी=पक जाता  है । ठिठकी=डरी हुई । साषत=
शात्त्क ।प्यड पराइनि=शरीर द्वारा वह इसके परायण है,वह नारी है जिसके
द्वारा शात्त्क वामाचार की साधना करता है ।
       सन्दर्भ--कबीरदास माया के सर्वव्यापी अहितकारी प्रभाव का  वर्णन  
करते हैं ।
       भावार्थ--माया रूपी  एक  सुन्दरी नारी  है, जो जगत की प्यारी है। वह
 सम्पूर्ण जीव-जन्तुओ की प्रयेसी है ।जब उसका पति मर जाता है तो वह उसके लिए
 रोती नही है । उसका रखवाला कोई दूसरा बन जाता है । इसके रखवाले का नाश हो 
 जाता है । उसे  इस लोक मे जाकर नरक भोगना पडता है,चाहे यहाँ वह भोग-विलास 
 ही करता हो। इस सुहागिन के गले मे सुन्दर एव आकर्षक वासना-रूपी हार सुशोभित 
 होता है । यह सतो के लिए विष-तुल्य है, परन्तु ससार के प्राणी इसको भोगते है ।
 यह सतो के पीछे लगी फिरती है, परन्तु उनको मोहित करने के प्रयत्न मे यह हार जाती
 है । यह बेचारी माया सतो के डर से ठिठकी हुई उधर-इधर भागती फिरती है । सत लोग
 इससे दूर भागते है और यह उनके पीछे पड़ी रहती है । गुरु के उपदेश द्वारा माटी हुई
  यह माया संतो से डरती है । शात्त्क को यह अत्यन्त प्रिय होती है,(शाक्त के लिए तो 
 माया वह नारी है जिसके मध्यम से वह वामाचार की साधना करता है । इसी से कबीर
 कहते हैं कि शाक्त के यहाँ इसका परायण होने वाला पिंड है ।) परन्तु भक्तो की दृष्टि
 मे वह पूर्ण चुडैल है । जब कृपालु गुरुदेव से मेग साक्षात्कार हुआ तव इस माया सुन्दरी
 का रहस्य मेरी समझ  मे आया । कबीर कहते है कि यह माया मुझ्से तो बाहर दूर पडी
 हुई है अर्थात मुझे तो यह स्पशं भी नही कर सकती है ।यह विपयी व्यकतियो के साथ 
 इस्का स्थायी सम्बन्ध रहता है अथवा विपयी व्यक्ति के पास से टाले नही टलती है ।