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[कबीर की साखी
 

 

जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध।
अंधै अंधा ठेलिया, दून्यूं कूप पडंत॥१५॥

संदर्भ—सतगुरु के ज्ञान से प्रकाशित होकर शिष्य विशुद्धात्मा हो गया। वह इनाम और अजात हो गया। परन्तु जिसका गुरु अन्धा है और चेला भी खरा निरंध है। ऐसे गुरु और शिष्य दोनों ही अन्धे प्राणियों के सदृश विनाश के कुएँ में गिरते हैं।

भावार्थ—जिस शिष्य का गुरु अन्धा और चेला स्वतः अन्धा है वे दोनों एक दूसरे को ठेलते-ठेलते कुएँ पड़ते हैं।

विशेष—प्रस्तुत साखी में कबीर के अज्ञानी गुरु एवं शिष्य की दुर्दशा का उल्लेख किया है। दोनों अज्ञान के कारण एक दूसरे को ठेलते हुए विनाश के कूप में विनष्ट हो जाते हैं।

शब्दार्थ— अवला = अंधा—अज्ञान के अन्धकार से ग्रस्त। खरा = पूर्णतया। निरव = निरा = निरा अन्धा। ठेलिया = ठेलते हुए। दून्यूँ = दोनों। कूप = माया का कूप या विनाश का कूप। पडत = गिरता है।

नां गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेला डाव।
दून्यूं बूड़े धार मैं, चढ़ि पाथर की नाव॥१६॥

सन्दर्भ—ज्ञानी सतगुरु के न मिलने के कारण बड़ा अहित हुआ। शिष्य माया, मोह, लालच और अन्य सजातीय कुप्रवृत्तियों से पराजित हो गया, जो अज्ञानी गुरु प्राप्त हुआ उसने शिष्य को ऐसा मार्ग प्रदर्शित किया, जिसके कारण गुरु और शिष्य अपने अज्ञान के कारण भवसागर में डूब गए।

भावार्थ—न सत् गुरु मिला, न शिष्य को सत् दीक्षा प्राप्त हुई। लोभ या लालच ने दोनों के प्रति दाँव खेलता रहा। पत्थर की नाव में बैठकर (भवसागर को उत्तीर्ण करने के अभिलाषी) दोनों भवसागर में डूब गए।

विशेष—पहले की साखियों में कवि ने सतगुरु के प्रसाद से प्राप्त ज्ञानलोक का उल्लेख किया है। अब यहाँ पर उसने झूठे गुरु के दर्शन से जो अहित होता है, उसका उल्लेख कर दिया है। अज्ञान से अभिशप्त गुरु के कारण शिष्य तो विनष्ट हुआ हो, गुरु भी भवसागर के मध्य में डूब कर विनष्ट हो गया। (२) दून्यूं... मैं—से तात्पर्य है कि दोनों मंझवार में डूब गए। (३) चढ़ि...नाव = से तात्पर्य है माया, लालच या मोह की नौका।