पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८४०

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रूपी चोर रहता है ।उसने मेरे सम्पूर्ण चैतन्य का हरण कर लिया है। मांगने पर वह मेरे चैतन्य रूप को देता नही है और अनुनय विनय भी नही मानता है । इतन ही नही,वह कामदेव मेरे ह्रुदय मे तान-तान कर वाण मारता है। हे कामदेव ,मैं अपनी रक्षा के लिए किसको पूकारूँ ?तुमारे डर के मारे बडे-बडे भाग खड़े हुए है। ब्र्म्हा,विषणु और चनद्रदेव तुमने किस-किसको कलकित नही किया है ? जप,तप,समय,पवित्रता धयान ओर ज्ञान सभी व्यक्ति इसके समक्ष पराजित हो गये हैं । कबिर कहते हैं कि इसके प्रभाव से केवल वे ही दो-तीन व्यक्ति बच पाए हैं जिन पर भगवान ने अनुग्रह किया हैं।

अलंकार-(१) गुढोक्ति-प्रथम पक्ति,किहि गुहराऊँ।

(२) रूपक-मदन चोर,काम वान। (३) विशेषोक्ति की व्यजना-मागे देहमान। (४) पुनरुक्ति प्रकाश-किहि किहि। (५) वत्रोक्ति-किहि कलक। (६) सहोक्ति- सब् सहित ग्यान। विशेष-(१) काम के सवंव्यापी एव सवंग्रासी प्रभाव की ओर सकेत है। (२) जा परि-कीन्ह। पुषिट मार्गेय भक्त की भॉति कबीरदास उद्धार के लिए प्रभु-कृपा पर अवलम्बित दिखाई देते है। (३) कामदेव के वान-२ हैं-मोहन,उन्मादन्,संतपन,शोपण और निश्चेष्टीकरण ।

एैसौ देखि चरित मन मोह्यौ मोर, ताथै निस वासुरि गुन रमौ तोर ॥ टेक ॥ इक पढ़हिं पाठ इक भ्रमै उदास, इक नगन निरंतर रहै निवास ॥ इक जोग जुगुति तन हूहि खींन, ऐसै रांम नांम सगि रहैं न लीन ॥ इक हूहि दीन एक देहि दांन, एक करै कलापी सुरा पांन ॥ इक तत मंत ओषध वांन, इक सकल सिध राखै अपांन ॥ इक तीर्थ व्रत करि काया जोति,ऐसै रांम नांम सू' करै न प्रीति ॥ इक घोम घोटि तन हूंहि स्यांम, यू मुकति नहीं बिन रामं नांम ॥ सत गुर तत कह्यो विचार, मूल गह्यो अनभै बिसतार ॥ जुरा मरण ये भये घीर, रामं कृपा भई कहि कबोर ॥ शब्दाथॆ- खनी== क्षीण । कलापी= कलप= करघनी, लक्षण से कोपीन, अत: कलापी का अथॆ कोपीनघारी हुआ। अयान= अपान वायु, भीतर को खीची जाने वाली सास-तात्पर्य 'प्राणायाम' से है। घोम= घुँआ। मूल = परम तत्व । जुरा= जरा, बृद्धा = स्या। घीर = निश्चल,अविचल। अनमं = निर्भय अवस्था ।