पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८४१

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संदर्भ-कबीरदास बाह्याचार के कारण उत्पन्न ससार की दुर्दशा का वर्णन करते हैं। भावार्थ-हे प्रभु ससार के लोगो के आचरण(ससार की दुर्द्शा) देखकर ही मेरा मन आपकी ओर आकृष्ट हुआ है। इससे मैं दिन रात आपके गुणो मे रमा हुआ हूँ (आपकी भक्ति मे तल्लीन हो गया हूँ)। कोई वेद पाठ से भूला हुआ है,कोई ससार के प्रति उदासीन होकर घुमता है,कोई निरन्तर नग्न बना हुआ रहता है,और कोई योग की युक्तियो से (हठायोग की साधना द्वारा) अपने शरीर को ही सुखाता है। एेसे व्यक्ति राम-नाम मे लवलीन नही रहते हैं। कोई भिखारी बन जाता है और कोई दानी बना हुआ दिखाई देता है। कुछ एेसे साधु हैं जो कोपीन तो धारण किए हुए हैं,परन्तु (वामाचार का अवलम्बन करते हुए)शराब पीते हैं। कोई तत्र-मत्र एव जडी-बूटियो की सधना करता है और कोई प्राणायाम की साधना करके पूर्ण सिद्ध होने का दम्भ करता हैं। कोई तीर्थ-व्रत करके अपने शरीर पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। बाह्याचारो मे विशवास करने वाले ये व्यक्ति राम-नाम से प्रेम नही करते हैं। कोई घुए मे घुट-घुट कर अपना शरीर काला कर देता हैं।परन्तु राम नाम के बिना इस प्रकार की साधनाएँ करने से मुक्ति की प्राप्ति नही होती है। सत्गुरु ने विचार करके तत्व की बात बताई है। हुदय मे निर्भय अवस्था का विस्तार करने वाले परम तत्व को ग्रहण करो। कबीर कहते हैं कि(गुरु के उपदेशानुसर आचरण करके) अब मैं वृद्धावस्था और मृत्यु के प्रति निश्चल हो गया हूँ। अब मेरे ऊपर राम की कृपा हो गई हैं। अलंकार-(१) अनुप्रास-मन मोह्यों मोर । नगिन निरतर निवास । () (२)विरोधाभास-कलापी सुरापान। (३) पदमंत्री-तत मत। (४) तदगुण की व्यजना-धोम घोटि तन हूहि स्याम। विशेष-(१)बाह्याचारों का विरोध हैं। राम-नाम के महत्व का प्रतिपादन है । (२)'वैराग्य' की व्यजना हैं। (३५७) सब मदिमाते कोई न जागा, ताथै सग ही चोर घर मुसन लाग ॥ टेक ॥ पंडित माते पढि पुरांन,जोगी माते धरि धियान ॥ सन्यासी माते अहमेव,तपा जु माते तप कं भेव॥

जागे सुक उधव अकूर ,हणवत जागे लै लगूर ॥ 

सकर जागे चरन सेव,कलि जागे नामा जैदेव ॥