पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/८४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५३५] [कबीर

   ए अभिमान सब मन के कामं, ए अभिमांन नही रहों ठाम॥
  आतमां राम कौ मन बिश्रांम,कहि कबीर भजि रांम नांम॥
शब्दार्थ-मद=उन्माद,गर्व। माते=मस्त,बेसुध।मुसन लाऊ=लूट रहे है।
  सन्दर्भ-कबीरदास स सारी व्यक्तियो की अज्ञान-दशा का वर्णन करते हैं।
  भावर्थ-समस्त स सार मन्दान्ध (उन्माद एव गर्व मे अन्धा,होकर अज्ञान की निद्रा मे मदहोश होकर सो रहा है। कोई भी ज्ञान लाभ कर सचेत नही होता है। इसी से साथ मे लगे हुए कामादिक चोर जीव के शरीर को (जीवन को)लूट रहे हैं। (विवेक को नष्ट तथा विशुद्ध चैतन को तिरोहित कर रहे हैं।) पडित पुराण पढकर मदमस्त है,योगी ध्यान -योग के अहकार मे मदहोश हैं। सन्यासी 'अहमेव'की भावना के अहकार मे तथा तपस्वी तप के भ्रम मे अपने आपको -भूले हुए हैं।

शुकदेव,उद्धव,अत्र्कूर,और जामवत सहिन हनुमान ईश्वर-प्रेम मे अनुरक्त होकर ही इस अज्ञान-निद्रा से जागे थे। शकर को भी भगवान के चरणों की सेवा से ही बोध हुआ था। कलियुग मे नामदेव और जयदेव को भी (इसी प्रकार) ज्ञान हुआ। (ज्ञान तप आदि के) उपयुंक्त समस्त अभिमान केवल मन मे उत्पन्न होते है। इन अभिमानो के कारण साधक का मन सदैव चचल बना रहता है। इसी से कबीर कहते हैं कि आत्मारामो के मन के विश्राम राम-नाम का भजन करना चाहिए-अर्थात् मन का वाग्ताविक विश्राम आत्माराम है। वहां पर मन अपनी सम्पूर्ण चंचलता सहित शुध्द चैतन्य मे विलीन हो जात है। यह ज्ञान और प्रेम द्वारा ही सम्भव है। इसी से कबीर कहते हैं की,हे जीव,राम-नाम का स्मरण करो।

    अलंकार--रूपकातिशयोक्ति-चोर,घर
    विशेष-(१) दम्भ उत्पन्न करने वाले वाह्माचारो का विरोध हे। साथ ही सच्ची भक्ति-भावना का प्रतिपादन हैं।
         (२) पुराण एव इतिहास प्रसिद्ध भक्तों की चर्चा द्वारा तीन बातें प्रकट होती है-

(क)कबीर का विरोध केवल दम्भ से था। जहाँ भी सचाई थी,वहाँ कबीर का मन रम जाता था। (ख) भारत मे पौराणिक सस्कृति का व्यापक प्रभाव था। जनता के मन को प्रभवित करने के लिए पौराणिक पात्रो का उल्लेख आवश्यक था।तथा (ग) कबीर के ऊपर हिन्दू सस्कारों का गहरा प्रभाव था।

                       ()
      चलि चलि रे भवरा कवल पास,
               भवरी वोले अति उदास॥टेक॥
    ते अनेक पुहप कौ लियौ भोग,सुख न भयौ तव वढ्चौ है रोग॥
    हाँ ज कहत तोसूं चार वार,मै सब बन सोध्यौ डार डार॥
    दिनां चारि के सुरंग फूल,तिनहि देखि कहा रह्मौ हे भूल॥
    या वनास्पती मे लागंगी आगि,तब तू जँहौ कहां भागि॥